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मधुसूदन ढांकी
मतिमन्द्र नीचेना सप्तको साधारणतया श्रवणगम्य नथी अने 'अतितार' पर रहेला सप्तको, ज्यां सुधी भारतीय संगीतने निस्बत छे त्यां सुधी तो श्रवणातीत नहीं तो ये श्रवणक्षम नथी."
स्वरो वच्चेनुं श्रुत्यन्तर एक सरखु नथो; भने प्रत्येक श्रुतिनुं प्रमाण पण एक शुं नधी. रागनी प्रकृति अनुसार कोई कोई स्वरो मूळ श्रुतिथी च्युत बनी 'उत्कर्षित' (चढेल) वा 'अपकर्षित' (उतरेल) बनी, थोडी उपरनी या नीचेनी सूक्ष्म श्रुति पर स्थिर थाय छे. आरोही-अवरोहीनी श्रुतिओमां पण (खास करीने इत गनिमां) सूक्ष्मतर मानी अंतर रहेतुं होवानुं अनुभवाय छे.५०
हवे 'नाद,' 'श्रुति' अने 'स्वर'ना 'रक्ति' साथे रहेला संबंध विशे जोईए. 'रक्ति'नो व्यावहारिक तेमज व्युत्पत्त्यर्थे छे “लालिमा,” किंवा “ ओजस." पण गांधर्वमा 'रक्ति'नो एक अर्थ छ 'अनुरंजन' : अनुरजकता नाम रक्तिरित्यभिधीयते ।
-कुम्भकर्ण भने एथी 'रक्त' शब्दथी 'रंजक' एवं प्राचीनो समजता हता. 'स्वर' आ कारणसर स्वभावथी 'रक्त' होय छे, स्वर रंजक-रक्तिप्रद-तो ज बने जो 'ध्वनि' एटले के 'नाद' पोते रक्तिपूर्ण होय. आथी व्यवहारमा 'रक्तिपूर्ण नाद' अने 'स्वर' बच्चे अभेद रहे छे. 'मतंग' आ संबंधमा 'कोहलाचार्य'र्नु आ विधान प्रमाणरूपे टांके छ:- ध्वनिरक्तः स्वरः स्मृतः एटले के रक्तिपूर्ण ध्वनि ते 'स्वर' समजवो. पण ध्वनि किंवा आह्तनाद रक्तिदः त्यारे ज थाय के ज्यारे ते श्रुतिमोना दारमांधी पसार थायः श्रुत्यादिद्वारतो गेये जनयन् रक्तिमाहतः। सङ्गीतराज, गीतरत्नकोश, स्वरोल्लास १,
स्थानादि परीक्षण, ६. श्रुति द्वारा संभूत बने ते नाद 'स्वर' छे तेवु अगाउ आपणे जोई गया छोए, आथी श्रुति मारफत प्रकट थतो नाद जो रक्तिदः होय तो ते नाद अन्य कोई नही पण 'स्वर' ज होवाथा स्वर पण स्वभावथी 'रक्त' होबार्नु सिद्ध थई जाय छे.
'रक्तिमार्ग'ने चूकी गयेलो स्वर 'श्रोत्रसुखावह'–श्रवणमंजुल-नथी तेवी टीका कुंभकर्णे आगळ उपर करी छ :