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गांधर्वम 'रक्ति'
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" सङ्गीत रत्नाकर" मां आजे तो खूब ज प्रसिद्ध बनी गयेल एक सूत्रमां मळे छे; शांगदेव कहे छे के श्रुति ( ना उत्थान ) पछी जागतो स्निग्ध, अनुरणनात्मक ( रणझणतो, झंकारयुक्त) अने सांभळनारनां चित्तने रंजित करतो ध्वनि ते 'स्वर': श्रुत्यन्तरभावी यः स्निग्धोऽनुरणनात्मकः
स्वतो रञ्जयति श्रोतृचित्तं स स्वर उच्यते ॥
- सङ्गीतरत्नाकर, १.३, २४-२५ 'मतंग,' 'पार्श्वदेव' 'मंडन,' 'कुंभकर्ण ' आदि शास्त्रज्ञीए पण थोडे ते अंशे भावी ज मतलबनुं पोतपोतानी आगवी रीते कां छे. '
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श्रुति 'गीत' (गायन)+अने 'आतोच' (वादन) मां प्रयुक्त बने छे. आ प्रयुकिना फळरूपे श्रुति द्वारा षड्जादि क्रमधी सप्तस्वरो निर्मित थाय छे, जेनी नोंध महाराणा कुंभाए लीवेली छेः
श्रुतिभ्यः स्युः स्वराः षड्जार्षभगान्धारमध्यमाः raat vaara निषाद इति तेषु च ॥
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- सङ्गीतराज, पाठयरत्नकोश, २. १८ गायनमां शरीरसंभवित स्वरोनी व्यावहारिक परिमितानी अंतर्गत गायकना कंठना तारत्व (pitch) अनुसार सप्तको स्थापी शकाय छे. गायकनी स्वाभाविक सप्तक मर्यादाने लक्षमां राखी कोई पण समुचित, स्वानुकुळ श्रुतिने व्यवहारमां 'आधारश्रुति' बनावी, तेमां आदि स्वर षड्जनी निष्पत्ति करी शकाय छे. आधार श्रुति पर आरंभिक षड्जना उदय बाद - षड्ज निश्चित थया पछी - ना स्वरो पोतपोतानां श्रुति-स्थानो पर स्वाभाविक रीते क्रमान्तरे (अभिनवगुप्तना शब्दोमां कहीए तो 'ऊर्ध्व स्पर्शना संस्कार' थी) स्थान ले छे. स्वरोनो जे जे श्रुतिओ पर संभव थाय छे ते सौ स्वरगत - श्रुति कहेवाय छे, अने बे स्वरगत - श्रुति वच्चेना गाळामां रहेली श्रुतिओ माटे 'अंतर्गत - श्रुति' के 'आंतर-श्रुति' एवं अभिधान 'विश्वावसु' अने 'नान्यदेव' (११मी शती) सरखा शास्त्रकारो आपे छे.'
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श्रुतिभोनुं सैद्धान्तिकरूपे अनंतत्व स्वीकार्य छतां व्यवहारमां तेनी एक सप्तकमा संख्या २२नी स्वीकारी छे अने आ संख्या विशे प्राचीन मध्यकालीन संगीतशाकारो वच्चे एकमति छे.' एकथी उपर चढता तेवा स्वरसप्तको असंख्य होई शके छे, पण व्यवहारमां तो ऋण ज सप्तको (मन्द्र, मध्य, तार) उपयुक्त छे. मन्दनी नीचे रहेलो 'अतिमन्द' श्रवणदुष्कर बने छे, ने तेमां तेम ज तारनी पेलेपारना 'अतितार 'मां 'वैस्वर्य'नो एटले के स्वर बेचराई जवानो भय रहेलो छे."