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________________ 4 मधुसूदन ढांकी उत्तरोत्तरतारस्तु वीणामधरांतरः । इति ध्वनिविशेषास्ते श्रवणच्छ्रति संज्ञिता ॥९॥ "उत्तरोत्तर तीव्र बनता स्वरस्थान वीणामां नीचे ने नीचे स्थानापन्न थाय छे. आ रीते आवता ध्वनि वच्चेनुं श्रवणलभ्य ( श्रुयमाण) बनतुं अंतर ते ज श्रुति, १११० आ 'श्रुति' ज 'स्वर' - संगीतमय रब- विशेष - नुं कारण बने छे. हरिपालदेवे ते विशेनी स्पष्टता करता कर्छु छे के "श्रुतिमांथी स्वर संभवे छे, ने श्रुतिस्थान पर नादनो पात थाय त्यारे स्वर संजात बने छे." यथा : श्रुतिभ्यः स्वरसम्भवः क्रियते यः श्रुतिस्थाने नादो जायेत य स्वरः || - सङ्गीतसुधाकर, गीताधिकार ५.२१ 'शांर्गदेवे' (१३मा सैकानो पूर्वार्ध) पण आज वात काणमां कही छे: श्रुतिभ्यः स्युः स्वराः || - सङ्गीतरत्नाकर १. ३. २३ 'स्वर' श्रुतिस्थाने केवी रोते समुद्भवे छे तेनी स्पष्टता मेदपाटपति महाराणा कुंभकर्णे "संगीतराज'' मां श्रुतिनी व्याख्या बांधतां आ प्रमाणे करी छे : "स्वरनी अभिव्यक्ति माटे हृदयाकाशमां ऊठतो अने भरातो प्रेरित ध्वनि ते 'श्रुति. " त एव श्रुत्यस्तत्र स्वराभिव्यक्तिहेतवे । ऊर्ध्वधन हृदाकाशे पूर्यते प्रेरितो ध्वनिः ॥ - सगीतराज, गीतरत्नकोश, स्वरोल्लास, ध्वनिप्रकरण. ३१ आधी श्रुति ए व्यवहारमां नादनी सहायताथी 'स्वर' ने ढाळतुं अमूर्त बीबु बनी जाय छे, या तो एक प्रकारनो लुगदी बनी जाय छे जेमां थई निमिषमात्रमा पसार थतो नाद 'स्वर' रूपे बहार पडे छे. * 'श्रुति' अने 'स्वर' सिद्धान्तमां अलग अलग होवा छतां स्वरनिष्पत्तिनो क्षणे बन्ने बच्चे व्यवहारमां अभेद देखातो होई, कार्य-कारण वह व्यावर्तक रेखा टळी एकत्व सधातुं होवानो भास थतो होई, दक्षिणमा आजे 'स्वर' ने बदले 'श्रुति' कहेवानो रिवाज पडी गयो छे. (याज्ञवल्क्ये "श्रुविजातिविशारद." एवो प्रयोग कर्यो छे तेनी आ पळे नोंध लईए.) कारण अनिवार्य एवा आ 'स्वर'नां स्वरूप अने लक्षणनी मोटेभागे तो 'अभिनवन्त' (२१मा शतक नो पूर्वार्ध) नी श्रुतिलक्षण विशेनो "अभिनव भारती" मां थली सचोट चर्चा परथी 'शांर्गदेवे' पदबद्ध करेली व्याख्या एमना आकर अन्थ
SR No.520752
Book TitleSambodhi 1973 Vol 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1973
Total Pages417
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size14 MB
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