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मधुसूदन ढांकी
उत्तरोत्तरतारस्तु वीणामधरांतरः । इति ध्वनिविशेषास्ते श्रवणच्छ्रति संज्ञिता ॥९॥
"उत्तरोत्तर तीव्र बनता स्वरस्थान वीणामां नीचे ने नीचे स्थानापन्न थाय छे. आ रीते आवता ध्वनि वच्चेनुं श्रवणलभ्य ( श्रुयमाण) बनतुं अंतर ते ज श्रुति, १११०
आ 'श्रुति' ज 'स्वर' - संगीतमय रब- विशेष - नुं कारण बने छे. हरिपालदेवे ते विशेनी स्पष्टता करता कर्छु छे के "श्रुतिमांथी स्वर संभवे छे, ने श्रुतिस्थान पर नादनो पात थाय त्यारे स्वर संजात बने छे." यथा :
श्रुतिभ्यः स्वरसम्भवः
क्रियते यः श्रुतिस्थाने नादो जायेत य स्वरः || - सङ्गीतसुधाकर, गीताधिकार ५.२१ 'शांर्गदेवे' (१३मा सैकानो पूर्वार्ध) पण आज वात काणमां कही छे:
श्रुतिभ्यः स्युः स्वराः ||
- सङ्गीतरत्नाकर १. ३. २३
'स्वर' श्रुतिस्थाने केवी रोते समुद्भवे छे तेनी स्पष्टता मेदपाटपति महाराणा कुंभकर्णे "संगीतराज'' मां श्रुतिनी व्याख्या बांधतां आ प्रमाणे करी छे : "स्वरनी अभिव्यक्ति माटे हृदयाकाशमां ऊठतो अने भरातो प्रेरित ध्वनि ते 'श्रुति. " त एव श्रुत्यस्तत्र स्वराभिव्यक्तिहेतवे । ऊर्ध्वधन हृदाकाशे पूर्यते प्रेरितो ध्वनिः ॥
- सगीतराज, गीतरत्नकोश, स्वरोल्लास, ध्वनिप्रकरण. ३१ आधी श्रुति ए व्यवहारमां नादनी सहायताथी 'स्वर' ने ढाळतुं अमूर्त बीबु बनी जाय छे, या तो एक प्रकारनो लुगदी बनी जाय छे जेमां थई निमिषमात्रमा पसार थतो नाद 'स्वर' रूपे बहार पडे छे. * 'श्रुति' अने 'स्वर' सिद्धान्तमां अलग अलग होवा छतां स्वरनिष्पत्तिनो क्षणे बन्ने बच्चे व्यवहारमां अभेद देखातो होई, कार्य-कारण वह व्यावर्तक रेखा टळी एकत्व सधातुं होवानो भास थतो होई, दक्षिणमा आजे 'स्वर' ने बदले 'श्रुति' कहेवानो रिवाज पडी गयो छे. (याज्ञवल्क्ये "श्रुविजातिविशारद." एवो प्रयोग कर्यो छे तेनी आ पळे नोंध लईए.)
कारण अनिवार्य एवा आ 'स्वर'नां स्वरूप अने लक्षणनी मोटेभागे तो 'अभिनवन्त' (२१मा शतक नो पूर्वार्ध) नी श्रुतिलक्षण विशेनो "अभिनव भारती" मां थली सचोट चर्चा परथी 'शांर्गदेवे' पदबद्ध करेली व्याख्या एमना आकर अन्थ