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________________ अपभ्रंश संधि-काव्यो के जे 'दोघट्टी' नामे प्रसिद्ध छे' तेमां आवतां छ संधि काव्योने सौ प्रथम मूकी शकाय. आचार्य रत्नप्रभसूरि एक विशिष्ट प्रतिभाशाळो तार्किक, कवि अने लाक्षणिक हता. एमणे संस्कृत, प्राकृत अने अपभ्रंश त्रणे भाषामां साहित्य-सर्जन कर्यु छे. 'प्रमाणनयतत्वालोक'नो 'रत्नाकरावतारिका' नामक प्रसिद्ध टीकाना रचयिता तरीके एमनी सुख्याति छे. आ उपरांत 'नेमिनाथचरित,' 'पार्श्वनाथचरित,' भने 'मतपरीक्षापंचाशत्' ए एमना जाणीता ग्रन्थो छे. उपर नोंधेल दोघट्टी-वृत्ति १११५० श्लोक प्रमाण छे अने सं. १२३८ मां गुजरातना भरूचनगरमां रहीने रच्यानुं कर्ताए नोंधेल छे. तेमा छ अपभ्रंश संधिओ उपरांत अनेक छूटा अपभ्रंश पद्यो आवे छे. रत्नप्रभसूरि जेवा समर्थ विद्वान कविनी प्रतिभा आ संधि काव्योमा पण अछतो नथी रहेतो. आ संधि काव्यो क्रमशः नीचे मुजब छे१. ऋषभपारणक संधि आदि - जं किर पाव-पंकु एक्खालइ, भवियह मोक्ख सोक्खु दिक्खालइ । ___संधिबंध-संबंध-रवनउ, चरिउ तं रिसह-जिणिदह वनउं ॥१॥ अंत –दससहसिहि साहुहु, सह महबाहुहु, अट्ठावइ विच्छिन्न-रिणु । माहाइम तेरसि, निस्सम सुहरसि, गउ निव्वाणि जुगाइ-जिणु ॥७८॥ पत्ता ७, १२, १७, २२ वगेरे गाथामां. २. चंदनबाला-पारण संधि अथवा वोर-पारण संधि आदि --तिसलादेवि-कुक्खि -कलहंसह, खत्तिय-नाय-वंस-अवयंसह । छिन्न-सुवन्न-सुबन्न-सरीरह, पारण-संधि भणउं जिण-वीरह ॥१॥ अंत सिरि-तिसला-नंदणु, कणयच्छवि-तणु, पज्जकासण-संठियउ । कत्तियमावस्सहि, साइहिं गोसहि, एक्को च्चिय निव्वाणि गउ ॥१०१॥ ।इति चंदनवाला पारण संधिः समाप्त । घत्ता-५, १०, १५ आदि गाथाए१. उपदेशमाला-धर्मदास गणि, दोघट्टी वृत्ति-आ. रत्नप्रभसूरि, __ संपा. आ. हेमसागरसूरि. मुंबई, १९५८, २. रत्नाकरावतारिका--संपा. पं० दलसुखभाई मालवणिया, अहमदाबाद. भा. ३प्रस्तावना, पृ. २१.
SR No.520752
Book TitleSambodhi 1973 Vol 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1973
Total Pages417
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size14 MB
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