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________________ सागरचंकार रणकुंडल-रणगीव महावल एवं-विह मिल्यिा बहवे भड ॥ व्हाओ कय-वलि-कम्मो वर-वत्य-विहूसिउ सिय कुमुमाभरणेहि दह्व[य]णु अलंकिउ ॥११३ आरूढउ फरिवरे दहवयणो थुव्वंतउ चारणि गुण-गहणो ॥ चलियउ लकह हुतो सो लका-नाहो षणवाहण-इदइया [104] पुत्तेहि सणाहो ॥११४ ताव छिन्निउ माग अहीणउँ हय हीसहि गय गजहि दीणउँ । वरिसहि जलहर रुहिरो अइ-निदर-धारउ नह-मग्गहि पुणु सूरो दुहुँ भायहि जाओ ॥११५ निठुर-सहि सिव फेक्कारह पण-देवय अइ-करुणउँ रोयइ ॥ पडियउँ रावण-छत्तु सहुँ राय-करीण विफुरइ दाहिण-अंगो रावण नारीण ॥११६ एत्वंतरि वुच्चइ मतीहि 'देव न गम्मइ अवसउणेहि ॥ वाव भणइ दहवयणो 'किं जपह भीया को अवसउण गणेइ जवुय-वहे चलिया' ॥११७ सपत्तउ पर-वल-आसन्नो जाणाविह-मड-घड-संपुन्नो ॥ एतउँ देक्खिउ नियडे वल रावण-केरउँ जेम जलहि उत्थल्लो वानर-मड-सिविरउँ ॥११८० ता सन्नद्ध वे-वि वलाइ आवडियइँ अवरोप्पर ताई ॥ १३ र पहवे ३ मो १ घष ११४ १ थुवतओ ११५ १ किमिन, १.विदर. ५ भायाहि ११६, १. सद, ११७ ३ ताप
SR No.520751
Book TitleSambodhi 1972 Vol 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1972
Total Pages416
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size11 MB
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