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सीयाहरण-रासु
न पइँ रामण-चे? पवन्नी
त महु चीति भति ऊपन्नी॥ किं एह असइहि वसे रावण-चरिएण ती मयरायह तणया लक्खउँ भणिएण ॥५३
हउँ इच्छउँ रावण सर जालहि
रण-मुहे चक्क कुत-फरवालहि ॥ सिर-छेओ जिय-नासो राहद-हत्येणं लच्छीहर-सहिएण किं वहु-भणि[5A]एण ॥५४
महु मत्तारु रामु जिणु सरणु
अन्नु न मज्झु जइ-वि जिय-हरणु ॥ तह-वि न वयणु करेमी मदोयरि तुझु छडि एहु तुहु गाहो एहु नीछउ मझु ॥५५
ज वीचए (१) दसरह-निव-तणयहँ
त अक्खउँ सुणि सेणिय सुयहँ ॥ दीसह लक्खणि रामो निय पुरउ सुसठिउ 'सीह-निनाउ न मुक्को किं राहउ आइउ' ॥ ५६
एउ चितिवि तिं वुच्चइ भाइउ
'विरुयउँ पहु किउ ज तुहुँ आइउ ॥ पडिवोल्लइ 'हउँ पत्तो तुहु सीह-सरेणं 'तो मई वर पु()हु मुक्को' 'किउ केण ते ण ॥५७
'जाहि तुर्म रक्खहि वइदेहि
महवा को-वि हरेविणु नेहो' । तेत्थु न देक्खए सीया सपत्तउ रामो ऊवसिहुयउ ताम तसु इदि[य]-गामो ॥५८
'हा हा सीए दइए सुह-लक्खणे
केण हरिय कहि गइय वियक्खणे ॥ ५३२. ऊपमो ५५ १ राम्ध २ अनु, जिद्दयरण ५ छटि ५६. ३ लखणि ५७ २. पल्याउ, केण्ण ५८ ३ तेथु न देखए,