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________________ आभोगिणि वीजा - नाणेण जाण रावण सन् खणेण ॥ दसरह - सुउ एहो रामो अनुविजिय सीया ओ जुन सगा लक्खणु अभइया (2) ॥३२ अस्थि कियउ दोहिं वि सकेओ सीह - निनाइ जाणिउ भेभो ॥ मुम्बइ सीह-निनाओ रावणि कवणेण गज राहवु वेगेण लक्खण-नाएण ॥३३ कारिवि विज्जए रूयउँ अतरु नीजह बहदेही देसतरु || रा[4]हवि अनु सुह-सीले सा निरु नेहाउल हीरती विलवेह गुरु-विरह-भयाउल ॥३४ 'हा हा राहव हा सोमित्ती के इउँ हीरउ विलवंती ॥ अइ- निठुर घोरा निणिवि सीय- पलावा रोयहि असु-जलदा वण- देवय- नियरा ॥ ३५ भावु मुणिवि विलवइ होरती सीलारक्खाणि दढ - निय- वित्ती ॥ बहुविह सीय-पलावा निसुणिवि भारडु पण चचु-पहारे दहवयणु पयडु || ३६ जा निणद चंचू-पहरेण ता मारिउ सो पखि खणेणं ॥ 'अहव न जोयसि सुहर लोयण-जुयलेण ता' जैपर दहवयणो 'पणिसु पाए' ॥३७ एव भणेपिणु चल्लिउ जावह तसु विज्जाहरं सम्मुह तावहँ || रणजर्डिनामेण भामंडल भीचो निय - सामिहि निरु भत्तो विहुरि वि नोभिच्चो ॥ ३८ २४ ५ विलवेह ५ स. ३७१. पहारेण, ५ तो ३८ १ भणेपिणु सागरचंद-रह ३५ १ सोमेली, 'हीर' मार्जिन में दिया है
SR No.520751
Book TitleSambodhi 1972 Vol 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1972
Total Pages416
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size11 MB
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