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बोधकथा
महान् ज्योति / महान् तीर्थ
इसमें संदेह की ज़रा भी गजाइश नहीं कि कश्मीर जितना अपने नैसर्गिक सौंदर्य में महान् है, विश्व-विख्यात है, भू-स्वर्ग है, उतना ही अपने आध्यात्मिक गौरव में आभा-मण्डित है। योग-दर्शन, शैवमत, और सूफीमत की आध्यात्मिक त्रिवेणी यहाँ केसर की क्यारियों में, सेव की वाटिकाओं में, बादाम के शगूफों में, वितस्ता के शान्त प्रवाह में विद्यमान है, जो जन-मानस के कलुष का अहर्निश प्रक्षालन करती रहती है। एक समय की बात है। लल्लेश्वरी (१४ वीं शताब्दी) अपने समकालीन सूफी कवि बाबा नसरुद्दीन और शेखनूरुद्दीन वली के साथ बैठी ज्ञान-ध्यान की चर्चा कर रहीं थीं, तो बाबा नसरुद्दीन कहते हैं
सिर्यस ह्य न प्रकाश कुने गंगि रा न तीरथ कुने बा'इस ह्य न बाँदव कुने
रत्रि ा न सोख कुने (सूर्य-जैसा प्रकाश कहीं नहीं, गंगा-जैसा महान् पावन तीर्थ कोई नहीं, भाइयोंजैसा रिश्ता कोई नहीं और पत्नी-जैसा कोई सुख नहीं।)
यह सुनकर शेख नुन्द ऋषि (शेखनूरुद्दीन) ने अपने विचार इस प्रकार प्रकट किये
अंछिन ह्य न प्रकाश कुने, कोष्टयन ह्य न टीरथ काँह चन्दस ह्य न बाँदव कुने
ख्यनस ा न सोख काँह। (आँखों-जैसी ज्योति कहीं नहीं, घुटनों-जैसा तीर्थ कोई नहीं, अपनी जेब (धन) के बराबर कोई रिश्ता नहीं और खाने-पीने के समान कोई सुख नहीं।) इन दोनों की बातें ध्यानपूर्वक सुनने के बाद लल्लेश्वरी ने कहा
मयस ह्य न प्रकाश कुने,
पयस रान तीरथ काँह। दयस ा न बाँदव कुने
मयस ा न सोख कााँह। (शिव की प्रेम-सुरा के समान कोई महान् ज्योति नहीं, शिव की तलाश के समान कोई महान् तीर्थ नहीं, शिव-जैसा कोई महान् रिश्तेदार नहीं, और शिव के समान संसार में कोई महान् सुख नहीं।)
- डा. निजाम उद्दीन
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