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________________ स्तुत्य एवं प्रेरक विशेषांक विषयानुकूल उपयोगी एवं सुन्दर है। तीर्थंकर ने आचार्य विद्यासागरजी के साहित्य एवं जीवन पर प्रकाश डालने का स्तुत्य एवं प्रेरक कार्य किया है। -अहिंसा-संदेश', रांची, दिस.७८ पठनीय 'श्री नैनागिरि तीर्थ एवं आचार्य विद्यासागरविशेषांक' से संबन्धित पत्रों के मुख्यांश विशेषांक बहुत सुन्दर है। पठनीय सामग्री बहत है। -सतीश जैन, दिल्ली प्रसन्नता की अनुभूति विशेषांक के संपादकीय लेख में आपने सुव्यवस्थित साधु की जो परिभाषा दी है उससे खूब इतने परिच्छन्न व सुव्यवस्थित रूप से आनन्द हुआ। यह विशेषांक प्रकाशित हुआ है कि इसके अप्रमत्त साधका आचार्यश्री विद्या लिए जितना साधुवाद दिया जाय वह कम सागरजी का परिचय पढ़कर खास प्रसन्नता ही है। संपादकीय तो अवश्य ही देखा। अनुभव हुई। वह आपके बौद्धिक विचारों का, आपके __-मुनि अमरेन्द्रविजय, होण्ड (गुजरात) सर्वस्व निछावर का कविता-रूप है। विशिष्ट एवं महत्त्वपूर्ण 'मोक्ष आज भी संभव है' इसे मैं भी इस युग के आदर्श, दिगम्बर, ३३ स्वीकारता हूँ। जो निज को मुक्त मन में वर्षीय तपस्वी महान मन्त आचार्य विद्या कर सकता है. वह मक्त है, केवल वाक्य सागरजी की विशुद्ध आध्यात्मिक साधना के से नहीं अपने साविक अस्तित्व से । प्रति श्रद्धा प्रकट करने के उद्देश्य से प्रस्तुत -गणेश ललवानी, कलकत्ता प्रकाशित किया गया है । अंक में सुरेश जैन द्वारा लिखित नैनागिरि सिद्धक्षेत्र का ऐतिहासिक परिचय एवं वर्तमान वैभव का आशा के अनुरूप मनोरम वर्णन भी दिया गया है । डा. नेमी- यह विशेषांक एक ऐसे शुभ्र जलज के चन्द जैन का 'भेंट, एक भेदविज्ञानी से', पं. चारों ओर मंडरा रहा है, जिसके मधुर कैलाशचन्द्रजी सिद्धान्ताचार्य का णमो मकरन्द में मनःप्राण भींग-भींग उठे हैं। लोए सव्व साहणं', नीरज जैन का 'एक सब कुछ पावन है, परम है, लुभावन है, और विद्यानन्दि', अजित जैन का 'यवा पीढी आशा के अनुरूप है। इन लेखों ने हृदय को का ध्रुवतारा' आदि रचनायें आचार्यश्री इतना अभिभत कर डाला कि संपादकीय पर महत्त्वपूर्ण हैं। संपादक बन्धओं की अपनी तो बौद्धिक स्तर पर तैरता ही रह गया। प्रतिभा, परिश्रम और संपादन-शैली की बालक विद्याधर को देखकर लगा जैसे विशेषता के फलस्वरूप यह ऐसा विशेषांक उसके हृदय में अनायास ही करुणा का कोई है, जिसे पढ़कर भौतिक चमत्कारों में लब्ध ऐसा अबझ स्रोत फट पड़ा है, जिसे ब्झने में आज की युवा पीढ़ी आचार्यश्री के माध्यम सारी दैहिक क्रियाएँ ही निस्पन्द हो गयी हैं, से सहज ही आध्यात्मिकता की ओर आक- भले ही उसमें कोई आचार्य पद्मासन लगाए पित हुए बिना नहीं रहेगी। न बैठा हो, किन्तु एक महती विराट् शक्ति ---'सन्मति-वाणी', इन्दौर जनवरी '७८ आकृति लेने को व्याकुल है। तीर्थकर : जन. फर. ७९/५७ Jain Education International For Personal & Private Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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