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________________ बोधकथा निराकुलता उन दिनों विदेह देश की राजधानी मिथिला थी। वहाँ के अधिपति महाराज नमि की वीरता और पराक्रम की गाथाएँ दूर-दूर तक गायी जाती थीं, किन्तु साथ ही थे वे अति भोग-विलासी। अनेक अनिन्द्य रूपसि रानियों से भरा-पूरा, नृत्य और संगीत से सतत गूंजता उनका रनिवास मानो इन्द्र के अखाड़े से होड़ ले रहा हो। अतिभोग का परिणाम अतिरोग होता है, फलतः महाराज नमि विषम दाहज्वर से पीड़ित हो गये। उनके शरीर का अंग-प्रत्यंग धधक उठा। उनकी गुदगुदी कोमल शैया भी उन्हें अंगार-बिछी-सी जान पड़ी। बड़े-बड़े वैद्य आये और औषधियाँ दीं, साथ ही उनके संपूर्ण शरीर को चंदन से लेप करने का भी निर्देश दिया। मलय चंदन के बार-बार लेप करने से महाराज को बहुत-कुछ शान्ति भी मिलती। रनिवास की सभी रानियाँ पति-सेवा के लिए उमड़ पड़ीं। वे चंदन घिसती और अपने कोमल करों से, अति मृदुलता से पति-देह पर उसका लेप करतीं। चंदन घिसते समय रानियों के हाथों की चूड़ियों से समुत्थित रुनझुन ध्वनि होती, वह थी तो मधुर; किन्तु बेचैन महाराज को सह्य न हो सकी। फलतः रानियों ने सौभाग्य-सूचक एक-एक ही चूड़ी रखकर अपना कार्य यथावत रखा। जब रुनझुन ध्वनि बन्द हो गयी तो राजा नमि ने पूछा-"क्या चंदन अब T जा रहा है?" पटरानी ने उत्तर दिया-"नाथ! चंदन तो यथावत घिसा जा रहा है, परन्तु हर रानी के हाथ में एक-एक चूड़ी होने से संघर्ष-जन्य ध्वनि बन्द हो गयी है"। इस उत्तर से राजा नमि की विचार-धारा धीरे-धीरे इस एकाकी चूड़ी-प्रसंग पर बहने लगी। उनकी अन्तर चेतना जाग उठी कि 'एकान्त' में ही शान्ति है। जहाँ न संघर्ष है, न टूट-फूट है, न टकराव और न कोलाहल, बस ऐसी ही एकत्व-दशा परम उपादेय है। इसी विचार-धारा में बहते हुए उन्होंने निश्चय किया कि अब भावी जीवन में मैं संसर्ग-संवर्ष की विषम स्थिति से बचं. और शान्त तथा एकाकी मार्ग की ओर बढ़। आकूलता और संवर्ष से भरा-पूरा यह राज्य मेरी एकता एवं निराकूलता के विपरीत है। जब मेरी दाह-ज्वर की पीड़ा में कोई भागीदार या हिस्सा बँटाने वाला संसार में नहीं है और न हो सकता है, तो फिर किसके लिए ऐसे राज्य-भार को मैं होऊँ ? मुक्ति-मार्ग समवेत से नहीं, एकत्व से ही प्राप्त होता है। इसी प्रकार सोचते-सोचते वे चुपचाप, अकेले महलों से निकल पड़े और सीधे वन की राह ली। वे किसी एकान्त वन-खण्ड में पहँचे, और एकत्वाराधना, ध्यान और तपस्या से एक दिन शान्त-निराकुल अवस्था की श्रेष्ठ गति को प्राप्त हुए। 00 अनचीते एक नन्हे प्रसंग से राजा नमि का भोग और राग भरा जीवन शीघ्र ही योग और विराग का जीवन बन गया। कौन कह सकता है कि आज किसी का दृष्ट-निकृष्ट जीवन, किसी ऐसे नन्हे प्रसंग के स्पर्श से कल के इष्ट-सूष्ठ जीवन में बदल जावे? सच तो यह है कि न कोई सतत दुष्ट है और न सतत सुष्ठु, सब ही प्रसंग का रंग है। D नेमीचन्द पटोरिया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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