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________________ रहे हैं। या तो वे सत्य थे या आप।' उन्होंने कहा--'उनका व्यवहार उनके पास था और हमारा व्यवहार हमारे पास । वे अपने शुद्धज्ञान से अपना व्यवहार चलाते थे और हम अपने शुद्धज्ञान से अपना व्यवहार चलाते हैं। न वे असत्य हैं और न हम असत्य हैं। उनको वह सत्य लग रहा था इसलिए उसका आचरण किया, असत्य जानकर नहीं। हमको यह सत्य लग रहा है इसलिए इसका आचरण करते हैं, असत्य जानकार नहीं। असत्य का आचरण न वे करते थे और न हम करते हैं। दोनों सत्य हैं। कोई असत्य नहीं है। सत्य-शोधक के लिए अत्यन्त आवश्यक है यह; क्योंकि या तो हम यह मान लें कि सत्य के सारे पर्याय उद्घाटित हो गये, अब कोई पर्याय शेष नहीं है। केवल ज्ञानी ही यह कह सकता है क्योंकि उसके सामने सत्य के सारे पर्याय उद्घाटित हैं। हमारे सामने सारे पर्याय उद्घाटित होने बाकी हैं। इस स्थिति में हम नहीं कह सकते कि जो आज तक जाना गया वही सत्य है और जो आगे जाना जाएगा वह सत्य नहीं होगा। - ज्ञानयोगी सत्य के प्रति समर्पित होगा । वह कहीं भी राग-द्वेष के प्रति समर्पित नहीं होगा। महावीर ने कहा--ज्ञानयोगी 'अणिस्सियोवस्सिय' होता है, किसी के प्रति झुका हुआ नहीं होता। वह केवल सत्य के प्रति झुका हुआ होता है। वह न सिद्धान्त के प्रति, न शास्त्रों के प्रति और न किसी के वचन के प्रति झुका हुआ होता है। वह केवल सत्य के प्रति समर्पित होता है। जो इतना साधनाशील होता है, वही ज्ञानयोगी होता है। यह बड़ी साधना है--रागद्वेष से मुक्त होने की साधना है, संयम की साधना है, तटस्थता की साधना है। पक्षपात से मुक्त रहने की साधना है, केवल सत्य-शोध और सत्य-जिज्ञासा की साधना है। इस साधना में जाने वाला ज्ञान के रहस्यों को अनावृत कर देता है। __ काल-चक्र के तुरंग धाये युग पर युग वीत गये आये साधन में देह तपा डाली सब कालचक्र के तुग धाये-- हे विरक्त योगी निष्काम देकर बलि जब निरीह प्राणों की त्याग चले अपनों का मोह सभी जाती थी धर्म-बेलि सींच राजपाट वैभव -धनधाम ब्राह्मणत्व पूर्ण स्वार्थ में डूबा ज्ञान-पुरुष राह में बिछाये और अधिक आँखें लीं भीच धर्म-ध्वजा हाथ में उठायेलेकिन तुम देख नहीं पाये धरती पर उदित हुए सूरज-से पीड़ा के मेघ सहज छाये नव प्रकाश गया और फैल रूढ़िवाद के विरुद्ध तुमने हे धर्म-अन्धता को तुम रौंद चले फूंक दिया नाथ सहज शंख अडिग बने जैसे हिमशैल पीड़ित जन देख अश्रु फूट पड़े जीवन यह व्यर्थ क्यों गंवायें तुमने भर लिया उन्हें अंक वसुधा में क्यों न हम समायें युग के हे पुरुष घरा-जाये युग पर युग बीत गये आये करुणाकर करुण गीत गाये काल-चक्र के तुरंग धाये - डॉ. छैलबिहारी गुप्त तीर्थंकर : जून १९७५/१८० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520602
Book TitleTirthankar 1975 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1975
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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