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________________ यथार्थ बल है ऐसा मान्य हो गया तब उस क्षात्र तेज को नया अर्थ प्राप्त हो गया और इस तरह 'श्रमण-संस्कृति' का विकास भी क्षत्रियों ने ही किया। जहाँ तक इतिहास की दृष्टि पहुँचती है, वहाँ तक विचार करने पर जाना जाता है कि क्षत्रियों ने ही-नये अर्थ में क्षत्रियों ने ही-श्रमण-संस्कृति को विकसित किया है। उपनिषदों में हम देखते हैं कि ब्रह्मविद्या ही, जो कि पहले यज्ञविद्या थी, उपनिषद्-काल में आत्म-विद्या के रूप में प्रसिद्ध हुई और उसके पुरस्कर्ता ब्राह्मणवर्ग के नहीं अपितु क्षत्रियवर्ग के लोग थे। यज्ञ-विद्या में कुशल ऋषि भी आत्मविद्या प्राप्त करने को क्षत्रियों के पास पहुँचते थे। इससे प्रतीत होता है कि श्रमणपरम्परा की ब्राह्मणों पर विजय शारीरिक बल से नहीं वरन् आत्मबल से हुई और वह भी यहाँ तक कि उपनिषद् और उनके बाद के काल में तो यज्ञ के स्थान में आत्मा ही ब्राह्मण-संस्कृति में प्रधान हो गया। यह काल श्रमण-ब्राह्मणसंस्कृति के समन्वय का था, आर्य-आर्येतर संस्कृति के समन्वय का था। यही भगवान् महावीर और भगवान् बुद्ध का समय भी है। श्रमण और ब्राह्मण के समन्वय के फलस्वरूप श्रमणों ने ब्राह्मणों से और ब्राह्मणों ने श्रमणों से नयी-नयी बातें सीखीं और अपनायीं । ब्रह्म का अर्थ जो पहले यज्ञ एवं उनके मन्त्र अथवा स्तोत्र होता था, उसके स्थान में उसका अर्थ अब आत्मा किया जाने लगा। श्रमण भी अब अपने श्रेष्ठ पुरुषों को आर्य और अपने धर्म को आर्यधर्म कहने लगी। यज्ञ का स्वीकार श्रमणों ने भी कर लिया और उसका वे आध्यात्मिक अर्थ करने लगे। यही क्यों, वे अपने संघ के श्रमणों को ब्राह्मण नाम से सम्बोधित करने में भी गौरव का अनुभव करने लगे। अपने आत्मधर्म का नाम भी उन्होंने ब्रह्मचर्य--ब्रह्मविहार रख लिया। ब्राह्मणों में ब्रह्मचर्य का अर्थ वेद-पठन की चर्या था। उसके स्थान में श्रमणों ने इसी ब्रह्मचर्य का अपनी आध्यात्मिक साधना के आचार रूप में परिचय दिया। ब्राह्मणों में जहाँ संन्यास और मोक्ष का नाम तक नहीं था, श्रमणों से लेकर उन्होंने दोनों को ही आत्मसात् कर लिया। भौतिक बल में श्रेष्ट और मनुष्यों के पूज्य इन्द्रादि देवों को श्रमणों ने जिनों के--मनुष्यों के पूजक, सेवक का स्थान दिया और ब्राह्मणों ने इन्हीं इन्द्रादिक देवों की पूजा के स्थान में आत्मपूजा प्रारम्भ कर दी और शारीरिक सम्पत्ति से आत्मिक सम्पत्ति को अधिक महत्त्व दे दिया, अथवा यह कहिये कि ब्राह्मणों ने इन्द्र को आत्मा में बदल दिया। संक्षेप में, ब्राह्मण धर्म का रूपान्तर ब्रह्मधर्म (आत्मधर्म) में हो गया। ऐसे ही समन्वय के कारण श्रमण और ब्राह्मण दोनों ही संस्कृतियाँ समृद्ध हुई और उनकी भेदक रेखा वेद-शास्त्र में सीमित हो गयी; याने अपनी मान्यता के मूल में जो वेद को प्रमाणभत मानते रहे, वे ब्राह्मण परम्परा में गिने जाने लगे और जो वेद-शास्त्र को नहीं अपितु समय-समय पर होने वाले 'जिनों' को मानते, वे श्रमण माने जाने लगे। श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर-विशेषांक/१६७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520602
Book TitleTirthankar 1975 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1975
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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