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दलसुखभाई मालवणिया
जैनधर्म के दो रूप हैं—–— एक आन्तरिक, नैश्चयिक याने वास्तविक और दूसरा है व्यावहारिक, बाह्य अर्थात् अ-वास्तविक | जैनधर्म के विषय में यदि विचार करना हो तो हमें इन दोनों रूपों का विचार करना होगा; फिर भारतीय धर्मों की यह विशेषता है कि उनका अपना-अपना दर्शन भी है । धर्म यद्यपि आचरण की वस्तु ही है, तथापि इस आचरण के मूल में कितनी ही निष्ठाएँ हैं । उन्हें ही हम यहाँ 'दर्शन' कहेंगे, याने जैनधर्म की चर्चा के साथ-साथ उसके दर्शन की चर्चा भी होना स्वाभाविक है और वह यहाँ होगी भी ।
'जिनों' याने 'विजेताओं' का धर्म 'जैनधर्म' है । प्राचीन काल में इन्द्र-जैसे देवों की उपासना उन्हें विजेता मानकर ही की जाती थी, परन्तु इन 'जिन' विजेताओं और उन विजेता इन्द्रों में बहुत अन्तर है । इन्द्र ने अपने तत्कालीन सभी विरोधियों का नाश कर महान् विजेता- पद को ही प्राप्त नहीं किया अपितु वह आर्यों का सेनानी एवं उपास्य भी बन गया था । यह उसकी बाह्य, भौतिक विजय थी, जिस के प्रताप से उसने जो प्राप्त किया, वह भौतिक सम्पत्ति ही था । इसी में वह मस्त था और उसी से उसका गौरव था । पर यह कोई अनोखी बात नहीं थी । इस प्रकार अनादि काल से मनुष्य शक्तिपूजक ही तो रहा था, परन्तु जब एक समूह या प्रजा पर किसी अन्य समूह या प्रजा ने विजय पा ली तो इस महान् विजय के विजेता इन्द्र ने एक विशिष्ट प्रकार का महत्त्व अपने समूह में प्राप्त कर लिया, और भारतवर्ष में इस विजय से जिस संस्कृति का विकास हुआ, वह 'यज्ञसंस्कृति' के नाम से प्रतिष्ठित हुई । इस संस्कृति के विकास में मूलतः तो क्षात्रते याने शारीरिक बल ही था, परन्तु जब बुद्धिबल ने इस क्षात्र तेज या शारीरिक बल पर विजय प्राप्त कर ली तो वह 'क्षत्रिय - संस्कृति' नहीं अपितु 'ब्राह्मण-संस्कृति' के नाम से प्रख्यात हो गयी । ये आर्य इस प्रकार से विजय प्राप्त करते आगे से आगे भारत में चढ़ते हुए जब उक्त ब्राह्मण-संस्कृति का प्रसार कर रहे थे, तब
श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर - विशेषांक / १६५
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