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समोसरण: - समवसरण, सबके एकत्र होने की धर्म सभा । पृ. ४६६-४८१
सम्मत्त=सम्यक्त्व । पृ. ४८२ - ५०३ सम्मद्दिष्ट्ठि सम्यग्दृष्टि । पृ. ५१२ - ५१४ सरीर=शरीर । पृ. ५३४-५५८
सल्ल = शल्य, चुभने वाली । पृ. ५६१-५६२ सव्वण्णु = सर्वज्ञ । पृ ५७४-५९२
सागारिय= सागारिक, गृहस्थ । पृ. ६०८ - ६१२
सामाइय = सामायिक, रागद्वेष-रहित समत्व की उपलब्धि । पृ. ७०१-७६४ सामायारी – सामाचारी, आगम के अनुकूल चर्या । पृ. ७६६-७७४
सावग, सावय = श्रावक । पृ. ७७९-७८४ सिद्ध सिद्ध, कृतकृत्य । पृ. ८२१–८४५ सुण्णवाय = शून्यवाद । पृ. ९३९-९४१ सुद्धणय = शुद्धनय, निश्चयनय । पृ. ९५७ सुय = श्रुत, अवधारित । पृ. ९६९-९९८ हिंसा - हिंसा । पृ. ११२८-१२३४ हेमवय - हैमवत क्षेत्र । पृ. १२४७ - १२४९
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इन एक सौ इकतालीस शब्दों में जैन दर्शन की एक झलक मिल सकती है। जो शब्द अन्य परम्पराओं में भी प्रचलित हैं या सामान्य शब्द हैं, उनका विशेष अर्थ में प्रयोग जैनागम साहित्य में उपलब्ध होता है । 'शरीर' एक सामान्य शब्द है, किन्तु जैन साहित्य में इसका प्रयोग स्थूल तथा सूक्ष्य दोनों प्रकार के शरीर के लिए हुआ है। यही नहीं, शरीर के जिन पाँच भेदों का वर्णन किया गया है, वह अन्य दार्शनिक साहित्य में नहीं मिलता। इसी प्रकार से 'समाधि' शब्द का प्रयोग राग-द्वेष परित्याग रूप धर्मध्यान के लिए किया गया है । अतएव विशिष्ट संकेतों से द्योतित अर्थ साहित्य तथा परम्परा दोनों रूपों में समान भाव को प्रकाशित करने वाला है ।
कोई भी व्यक्ति सामान्य रूप से इन शब्दों का अध्ययन कर इनके माध्यम से जैनदर्शन तक पहुँच सकता है। अधिकतर सरल शब्दों का संकलन किया गया है, पर ये गूढ़ अर्थों से गुम्फित हैं, यही इनका वैशिष्ट्य है ।
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श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर - विशेषांक / १३१
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