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________________ यदीया सत्कीत्तिः तुहिनधवलाभा शिखरिणी प्रतिष्ठा यस्यास्ति प्रभुपदसमानावनितले । यदीयं सम्मानं निखिलजनवर्गेष्वतिशयम्, उपास्ते तं 'चन्द्रः' प्रणतहृदयो 'नेमि' सहितः ॥३॥ चमत्कारं वाणी वितरति यदीया सुललिता, यदीयत्यागस्यापरिमित कथा कास्तु कथिता । लभन्ते नो शान्तिं क इह परमां यस्य शरणे, अपूर्वः निर्ग्रन्थः विहरतितरां कोऽपि भुवने ॥४॥ परं पूज्यं लोकैः जगति जननं यस्य सततम्, परं श्लाघ्यं लोकैरमलचरितं यस्य सुगुरोः । परं ध्येया लोकैरमररचना यस्य निखिला, महावीरस्वामिप्रथितवरशिष्यो जयतु सः ॥५॥ जनोऽसौऽल्पज्ञो वा भवति सुमहान् यस्य कृपया, यदीय स्पर्शो वा मटुमपि सुवर्णं प्रकुरुते । यदीयाशीर्वाणी विकिरति सुधासिन्धुलहरीम्, समन्तादौभद्रः भवतु चिरभद्राय स भुवः ॥६॥ नमस्तस्मै भूयो युगपुरुषवर्याय सततम्, नमस्तस्मै भूयोऽखिल जननमस्याय सततम् । नमस्तस्मै भूयो भवतु च मुनीन्द्रायसततम्, अहं लोके मन्ये यमिमकलङकं श्रुतधरम् ।।७।। (जिनके प्रभाव और सद्वाणी से जन-मन के रागद्वेषादि विकार शान्त होते हैं और दर्शन से सुख एवं शान्ति प्राप्त होती है। वे मुनिश्री विद्यानन्द जगत् में सदा जयवन्त हों॥1॥ जिनका व्यक्तित्व गुण-गण-समृद्ध और सर्वविदित है और जिनको विद्वत्ता को विद्वज्जन सराहना करते हैं, तथा प्रत्येक दिशा में जिन्हें प्रसिद्धि और सिद्धि प्राप्त है, उन मुनिश्री विद्यानन्द के चरण-युगल में निरन्तर विनम्र बना रहूँ॥2॥ जिनका सुयश हिम के समान सर्वत्र व्याप्त है और लोक में प्रभु-पद की भांति जिनको प्रतिष्ठा है, समस्त जनता में जिनका अतिशय सम्मान है; उन मुनिश्री को नम्र हृदय नेमिचन्द्र उपासना करता है॥3॥ जिनको सुन्दर वाणी चमत्कार उत्पन्न करती है, उनके महान त्याग का क्या वर्णन किया जाए ? जिनकी शरण जाने पर किसे शान्ति नहीं मिलती? ऐसे अपूर्व दिगम्बर श्रमण मुनिश्री विद्यानन्द का लोक में सदा विहार होता रहे ॥4॥ सांसारिकों द्वारा जो सदैव पूज्य बने हुए हैं, जिन सुगुरु का निर्मल चरित्र प्रशंसनीय है और जिनका समस्त स्थायी साहित्य जनता के लिए पढ़कर चिन्तन करने योग्य है; ऐसे भगवान् महावीर के विख्यात श्रेष्ठ शिष्य मुनिश्री विद्यानन्द जयवन्त हों॥5॥ जिनकी कृपा से अल्पज्ञ भी महान् ज्ञानी बन जाते हैं, जिनका स्पर्श लोहे को भी स्वर्ण बना देता है और आशीर्वादपूर्ण वाणी अमृतमय सागर के समान आनन्द प्रदान करती है, ऐसे मंगलमय मुनिश्री विद्यानन्द चिरकाल तक जगत् का मंगल करते रहें॥6॥ हम युगपुरुष श्रेष्ठ मुनिश्री को सदा प्रणाम करते है ! सर्वलोक-पूज्य मुनिश्री को निरन्तर प्रणाम करते हैं ! उन मुनिराज को बारंबार प्रणाम है, संसार में जिन्हें मैं निर्दोष श्रुतधर मानता हूँ॥7॥) अनु.-नाथूलाल शास्त्री १०० तीर्थकर | अप्रैल १९७४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520601
Book TitleTirthankar 1974 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1974
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size5 MB
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