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चाहता था, पर चंकि सड़कें बहुत खराब थीं, इस वजह से 'जीप' गाड़ी के बिना वहाँ नहीं पहुँचा जा सकता था । सो मैंने वहाँ जाने का अपना इरादा त्याग दिया था। मनिश्री बोले : 'क्या केवल इसी कारण तुम वहाँ न जाओगे, कि 'जीप' गाड़ी नहीं है?' मैंने कहा : 'जी हाँ। महाराज !' . . .
तब वे बोले कि 'एक घंटे बाद फिर मुझ से आकर मिलना, मझे तुम से कुछ बात करना है।' जब घंटे भर बाद मैं उनके पास गया तो महाराजश्री ने घोषित किया : “कल सुबह ठीक छह बजे, धर्मशाला के द्वार पर एक जीप तुम्हारी प्रतीक्षा में खड़ी होगी, जो तुम्हें तुम्हारे गन्तव्य 'नवगजाजी' ले जाएगी। तुम कल अलवर के जंगल में वह पूर्व-मध्ययुगीन जैन देवालय अवश्य देखोगे।"..मैं स्तंभित रह गया, · · · · नहीं मैं चकरा गया, . . . . 'नहीं केवल चकराया ही नहीं, मैं द्रवीभत हो गया। · · · 'मेरे चेहरे पर छा गये भाव के बादल को उन्होंने देख लिया।· · · ·उन्होंने उसे लक्षित किया, और इसीसे उन्होंने मुझे वहाँ एक क्षण-भर भी और न ठहरने दिया और तुरन्त मुझे कमरे से बाहर चले जाने का इंगित कर दिया। उनके भीतर के इस आत्मनिग्रह और संयम को देख कर मैं अधिकाधिक उनकी ओर आकृष्ट होता चला गया ।.... __अगले दिन सवेरे मैं 'नवगजाजी' चला गया। वहाँ मैंने सात अत्यन्त सुन्दर शैव और जैन मंदिरों के ध्वंसावशेष देखे । 'नवगजाजी' की प्रमुख तीर्थंकर-मूर्ति अतिशय प्रभावशाली थी और उसका शिल्पन बहुत नाजुक ढंग से हुआ था। वह तेरह फुट तीन इंच ऊँची एक भव्य ऊँची प्रतिमा थी। उसके मस्तक पर दो फुट-छह इंच व्यास का एक छत्र था, जो दो हाथियों पर आधारित था। इस समूचे शिल्प की ऊँचाई सोलह फुट-तीन इंच है, और चौड़ाई छह फुट है । मैं वहां से कोई सौ फोटो उतार कर धर्मशाला लौट आया।
__ मैंने मुनिश्री के समक्ष उस स्थान और मूर्तियों की भव्यता और सौंदर्य का वर्णन किया। मुनिश्री उसके प्रति इस कदर आकृष्ट हुए कि एक बच्चे जैसी कुतूहल जिज्ञासा से उन्होंने पूछा : ‘क्या मैं भी वहाँ तक पहुँच सकता हूँ ?'
इस प्रसंग के बाद मेरा मुनिश्री के पास फिर जाना नहीं हो सका है। अब जैन कलासंस्कृति के प्रलेखन की मेरी योजना समाप्त-प्रायः है । एक बरस गुजर चुका है । मैं कोई बीस हजार किलोमीटर की यात्रा इस देश के विविध विस्तारों मैं कर चुका हूँ ; और सात हजार तस्वीरें मैंने उतारी हैं । इस सारी सामग्री का उपयोग १९७४ में झ्यूरिख (स्विटजरलैण्ड) में होने वाली जैन कला और संस्कृति की प्रदर्शनी में होगा ।
उसके बाद यह प्रदर्शनी यूरुप के अन्य देशों में भी प्रवास करेगी। इस सामग्री के आधार पर मैं अपने मित्र और सहयोगी डॉ. एबरहार्ड फिशर की सहकारिता में 'जैन प्रतिमाविज्ञान' पर एक पुस्तक भी लिख रहा हूँ जोकि हॉलैण्ड में प्रकाशित होगी।
मैं स्वीकार करूँ, कि इस कार्य को सम्पन्न करने में मनिश्री के व्यक्तित्व से मुझे सतत प्रेरणा और प्रोत्साहन प्राप्त होता रहा । कृतज्ञ भाव से मैं उन्हें प्रणाम करता हूँ। (मूल अंग्रेजी से अनूदित)
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तीर्थंकर / अप्रैल १९७४
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