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________________ तपस्या के चरण चलते-चलते राह बन गये, तपते-तपते बने उजाली। तन प्राणी-प्राणी का तन है, मन उपवन उपवन का माली। रूप अतन, जीवन चन्दन है, रोम-रोम कमलों का वन है। श्वासों में साहित्य सुमन है, हाथों में विद्या का धन है। बात-बात में गांधी-वाणी, राग-राग में भोले शंकर । अधरों पर दुखियों की कविता, आँखों में सारे तीर्थंकर ।। विद्या-धन ऐसा सागर है-जो न कभी रत्नों से खाली। चलते-चलते राह बन गये, तपते-तपते बने उजाली। दुनिया त्यागी, कपड़े छोड़े, छोड़ा नहीं हृदय कवियों का। जोड़ा नहीं, दिया दाता को, तोड़ा नहीं हृदय कवियों का । उपवासों में जग को भोजन, मौन व्रतों में मंत्र ज्ञान के। मस्तक पर त्रय रत्न दीप्त हैं, उर में अंकित शब्द ध्यान के ।। मन्दिर-मन्दिर के दीपक स्वर, चाह अमर पूजा की थाली। चलते-चलते राह बन गये, तपते-तपते बने उजाली ।। जिधर दिगम्बर पग धरते हैं, उधर बुझे दीपक जल जाते। जिस पर दया-दृष्टि करते हैं, उसके नष्ट बीज फल जाते ।। जो सत्संग नहीं तजता है, उसको दाग नहीं लगता है। जो चरणों को मुकुट बनाते, उनको स्वार्थ नहीं ठगता है। मानस में शशि की शीतलता, माथे पर सूरज की लाली। चलते-चलते राह बन गये, तपते-तपते बने उजाली। - रघुवीरशरण 'मित्र' स्याद्वाद में सबकी बोली, भावों में भक्तों की भाषा। पूजा में जन-जन की पूजा, चावों में सबकी अभिलाषा ।। गतिविधि में युग-युग की निधियाँ, यति में विश्व-क्रान्ति की सीता । प्रकट हुआ आलोक वीर का, मुखर हुई मुनियों की गीता ॥ रसना नहीं रसों से खाली, साधू नहीं गुणों से खाली। चलते-चलते राह बन गये, तपते-तपते बने उजाली। मुनिश्री विद्यानन्द विशेषांक ९१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520601
Book TitleTirthankar 1974 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1974
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size5 MB
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