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________________ अध्याय 'शब्दार्थ-वैभव' है। उसे पढ़ते हए मुनिश्री ने शब्द के अर्थ के सम्बन्ध में वाक्यपदीयकार के मत की चर्चा की है। महाराजजी ने कहा कि 'वाक्यपदीय' ग्रंथ में अर्थ तीन प्रकार का बताया गया है। 'घट' के तीन अर्थ हैं-(१) 'ज्ञानघट' जो घड़ा बनाये जाने से पहले कुम्भकार के मानसिक पटल पर था। (२) 'अर्थघट' जो चाक पर बनाकर तैयार किया गया है। (३) 'शब्दघट' जिसे मनुष्यों की वाणी द्वारा 'घट'; अर्थात् घ्+अ---ट-+-अ-- इन चार ध्वनियों में व्यक्त किया गया है। शनैः शनै दर्शन, व्याकरण और साहित्य की अनेक शाखा-प्रशाखाओं पर महाराजजी विचार व्यक्त करते जा रहे हैं। सर्वश्री डॉ. रामसुरेश त्रिपाठी, डॉ. गिरिधारीलाल शास्त्री, डॉ. प्रचण्डिया, प्रा. ब्रजकिशोर जैन, सेठ प्रकाशचन्द्र जैन (सासनी) आदि कई सज्जन उन्हें ध्यान से सुन रहे हैं । वार्तालाप के बीच मेरे ग्रंथ 'रामचरितमानस : वाग्वैभव' पर भी मुनिश्री दृष्टि डाल लेते हैं। उसे पढ़ते-पढ़ते एक साथ महाराजश्री कह उठे कि 'रामचरितमानस' के बालकाण्ड को पढ़ने से विदित होता है कि तुलसी ने प्राकृत भाषा के ग्रन्थों को भी पढ़ा था। यह सुनकर मैंने निवेदन किया कि “महाराजजी ! बालकाण्ड और उत्तरकाण्ड में ऐसे प्रमाण मिलते हैं कि तुलसीदास ने रामकथा के बीज और सूत्र स्वयंभू कविकृत 'पउम चरिउ' से भी प्राप्त किये थे।” मनिश्री तुरन्त मेरे समर्थन में कह उठे कि तुलसी बालकाण्ड में स्पष्टतः लिखते भी हैं-- "जे प्राकृत कबि परम सयाने । भाषा जिन्ह हरिचरित बखाने ।" -बाल. १/४५ . “महाराज ! ऐसा प्रतीत होता है कि इस अख़्ली में 'प्राकृत कबि' से तुलसी का तात्पर्य ‘पउम चरिउ' के रचयिता सयंभु से है"-विनम्रता पूर्वक मैंने निवेदन किया। बात का सिलसिला जारी रखते हुए मैंने आगे भी कहा कि 'पउम चरिउ' के कवि सयंभु ने रामकथा-रूपी नदी में सुन्दर अलंकारों और शब्दों को मछलियाँ, और अक्षरों को जल बताया है। उसी शैली में तथा उसी प्रकार के शब्दों में तुलसी भी लिखते हैं; जैसे-- "अक्खर पास जलोह मणोहर । सुअलंकार सद्द मच्छोहर ॥" --सयंभु "धुनि अवरेव कबित गुन जाती । मीन मनोहर ते बहु भाँती ॥ -तुलसी २५ जून १९७३ मुनिश्री की भाषण-माला का आज अंतिम दिन है। पुरोगम के अनुसार उसी सभा-मंडप में श्री महाराज का प्रवचन 'भगवान् महावीर' पर हो रहा है। भगवान् महावीर के दिव्य शरीर तथा दिव्य चरित्र को बड़े विस्तार से इस रसवर्षिणी वाणी में अभिव्यक्त किया जा रहा है। प्रमाण-प्रस्तुतीकरण के लिए नामालूम मुनिश्री विद्यानन्द-विशेषांक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520601
Book TitleTirthankar 1974 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1974
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size5 MB
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