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प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी आदि अनेक भाषाओं की अनेक रामायणें हैं। प्रवचन में मुनिश्री ने 'शबरी के बेर' और 'दशानन' की प्रमाण-पुष्ट विवेक-सम्मत बुद्धिग्राह्य व्याख्या की है। वाल्मीकीय रामायण से अनेक उदाहरण देकर राम की महत्ता, वीरता एवं उदात्तता को स्पष्ट किया है। वात्सल्य-परिपूर्ण मंदोदरी के स्तनों द्वारा सीता के क्षीराभिषेक का शास्त्रीय उदाहरण प्रस्तुत करते हुए रावण की कामवासना की समाप्ति की जा रही है। हम सब श्रोता मंत्र-मुग्ध-से बैठे प्रवचन सुन रहे हैं और मुनिश्री के चरणों में मौन प्रणामांजलि अर्पित कर रहे हैं। राम और सीता के जीवन से आज के समाज को क्या सीखना चाहिये, इस पर महाराज-श्री का प्रवचन चल रहा है। वर्तमान समाज के चरित्र और आचरण पर बीच-बीच में मुनिश्री का मीठा व्यंग्य पहले हमें कुछ लज्जित-सा बनाता है और फिर अपने पूर्वजों के आदर्शों पर चलने की प्रबल प्रेरणा देता चलता है। मुनिश्री की दिव्य वाणी द्वारा वाल्मीकीय रामायण के पुरुषोत्तम राम के पावन चरित्र की एक झाँकी एक श्लोक के माध्यम से प्रस्तुत है--रावण के प्राणान्त होने पर राम विभीषण से कहते हैं
"मरणान्तानि वैराणि निवृतं नः प्रयोजनम् । क्रियतामस्य संस्कारो ममाप्येष यथा तव ॥"
(वा. युद्ध 109/25) डेढ़ घंटे में भाषण समाप्त हुआ है। मुनिश्री अपने आवास-कक्ष में चले गये हैं।
२४ जून १६७३
प्रातः सात बजे का समय है । खिरनीगेट के जैन मंदिर के प्रांगण में स्त्रीपुरुष शान्त भाव से बैठे हैं और मनिश्री के शुभागमन की प्रतीक्षा कर रहे हैं, क्योंकि आज महाराज-श्री का व्याख्यान भगवान् श्रीकृष्ण के जीवन से सम्बद्ध है। मुनिश्री ने पहले की भाँति अपना भाषण ठीक समय पर प्रारंभ कर दिया है और महाभारत, भागवत तथा अन्य जैन ग्रन्थों के आधार पर श्रीकृष्ण के चरित्र को प्रस्तुत किया जा रहा है। श्रीकृष्ण के चरित्र की उदात्तता प्रमाण-निर्देश-पूर्वक व्यक्त की जा रही है। महाराजश्री को अपने कथ्य और वक्तव्य की इतनी नाप-तौल है कि भाषण सदैव समय पर समाप्त होता है और उतने ही समय में अभीष्ट विचार-बिन्दुओं पर पूर्ण प्रकाश भी डाल दिया जाता है।
भाषण समाप्त करके मुनिश्री अपने आवास-कक्ष में चले गये हैं । मेरी प्रबल इच्छा है कि महाराजजी से एकान्त में कुछ शास्त्र-चर्चा की जाए। श्री खण्डेलवालजी के स्नेह के फलस्वरूप मुझे महाराजजी का प्रत्यक्ष सान्निध्य प्राप्त हो गया है
और उन्हें अपनी प्रणामांजलि अर्पित करते हुए मैंने अपना सद्य: प्रकाशित ग्रंथ 'रामचरितमानस : वाग्वैभव' सादर भेंट में अर्पित किया है । उस ग्रंथ का प्रथम
तीर्थंकर | अप्रैल १९७४
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