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________________ एवं सम्प्रदायातीत है । इसीलिए अनेक लब्ध प्रतिष्ठ साहित्यकार जैन - जैनेतर का भेद भुलकर उनके मार्गदर्शन में सृजन-रत हैं तथा अपने महत्वपूर्ण कृतित्व से जैन भारती का भण्डार भर रहे हैं । मुनिश्री बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं । साहित्य की सभी विधाओं के विकास में उनकी रुचि है | काव्य, निबन्ध, नाटक, उपन्यास, कहानियाँ, संस्मरण, रेडियो- रूपक, रिपोर्ताज के साथ ही साथ कला, संगीत और इतिहास के लेखन एवं अनुसंधान पर भी उनका विशेष ध्यान है । उनकी पावन प्रेरणा से स्थापित श्रमण जैन भजन प्रचारक संघ, दिल्ली; वीर निर्वाण-ग्रन्थ- प्रकाशन समिति, इन्दौर, विश्वधर्म ट्रस्ट, कोटा, वीर निर्वाण भारती, मेरठ आदि संस्थाओं की रचनात्मक प्रवृत्तियों में इसका प्रमाण निहित है । दिगम्बर जैन समाज में आज तक साहित्य-सृजन के प्रति घोर उपेक्षा का भाव व्याप्त रहा है, मुनिश्री ब अभावको आँधी की गति से दूर करना चाहते हैं । सम्प्रति समाज में साहित्यिक जागरण की जो लहर दिखलायी पड़ रही है, उसका सम्पूर्ण श्रेय मुनिश्री को ही है । 1 निःसन्देह पूज्यश्री साहित्य एवं चरित्र के यशस्वी स्नातक हैं । वे एक अद्वितीय शब्दशिल्पी हैं । उन्होंने शब्दों की उपासना की है; आज शब्द उनकी उपासना के लिए प्रस्तुत हो रहे हैं । एक सूत्रकार शब्द-कोष में सूत्र शब्द के अनेक अर्थ दिये हुए हैं - सूत, तागा, जनेऊ, नियम, व्यवस्था, रेखा तथा थोड़े शब्दों में कहा हुआ पद या वचन, जिसमें बहुत और गूढ़ अर्थ हो । मुनिश्री हर दृष्टि से एक सफल सूत्रकार हैं । तागा फटे वस्त्र को जोड़ता है, कतरनों से उपयोगी परिधान बनाता है । मुनिश्री ने मानव हृदयों को परस्पर जोड़ा है । भाषा, जाति एवं सम्प्रदायजनित भेद-भावों को भुलाने पर वह हमेशा जोर देते हैं । 'मनुष्यजाति रेकैव, जातिकर्मोदयोद्भवा' - जाति नाम कर्म के उदय से उत्पन्न हुई मनुष्य जाति एक हैपूज्यपाद स्वामी के इस सन्देश को वे निरन्तर दुहराते रहते हैं । तागा रंग-बिरंगे फूलों को गूँथकर माला के रूप में प्रस्तुत करता है और वह माला देवता के गले का आभूषण बनती है । मानवमात्र के शुभचिन्तक मुनिश्री ने नानावर्णजाति सम्प्रदाय के लोगों को एकता का सन्देश दिया है और इस एकता से मानवता का शृंगार हुआ है । उनकी विराट धर्म-सभा उस उद्यान का दृश्य प्रस्तुत करती है, जिसमें भाँति-भाँति के आकारप्रकार वाले बहुरंगी मुकुलित पुष्प अपनी सुगन्ध से पर्यटकों का मन मोह लेते हैं । मुनिश्री ने समाज को एक व्यवस्था - रेखा ( मर्यादा) दी है । वह स्वयं संयम के पुजारी हैं, दूसरों को भी संयम का पाठ सिखाते हैं । मनुष्य की दैनंदिन क्रियाओं में संयम की मुनिश्री विद्यानन्द - विशेषांक Jain Education International For Personal & Private Use Only ४५ www.jainelibrary.org
SR No.520601
Book TitleTirthankar 1974 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1974
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size5 MB
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