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और उसके मुर्ख कवि की वहाँ कहाँ पूछ है ? क्योंकि उसका कोई प्रदर्शनात्मक मूल्य तो है नहीं। प्रजा के रक्त में वह संचरित हो भी सकता है, पर कहीं दिखायी तो नहीं पड़ेगा। जिसका प्रतिफल प्रत्यक्ष होकर दाता का यश-विस्तार न करे, उस दान की क्या सार्थकता? ____ एक मंजिल पर कवि की सजन-योजना पर विचार-कृपा हुई भी; लेकिन रूप यह कि कुल इतने पृष्ठों में निमटा-सिमटा देना है, कुल इतना पारिश्रमिक, प्रतिमास इतने पृष्ठ लिख देने होंगे, प्रतिमास इतना रुपया मिल सकेगा । काँट्रक्ट पर कवि हस्ताक्षर करेगा ही। मेरे भीतर उठ रहे महावीर वह्निमान हो उठे । कॉमर्स और काण्ट्रेक्ट के कारागार में प्रकट होने से उन दिगम्बर पुरुष ने इनकार किया । मैंने पूछा : 'तो भगवन्, आखिर रचना कैसे होगी ?' वीतराग प्रभु अपने स्वभाव के अनुसार मौन रहे और मुस्कुरा आये । · · · मेरे हृदय में एक प्रचण्ड संकल्प और आत्मविश्वास प्रकट हुआ : 'नहीं, नहीं चाहिये व्यावसायिक व्यवस्था का भरण-पोषण । आकाश-वृत्ति पर अपने को छोड़कर आकाश-पुरुष का चरितगान करूंगा । चरितार्थ तब महाजन का मुखापेक्षी न रहेगा। स्वयं विश्वंभर मेरा चरितार्थ बनेंगे । ..' ____तब अपने प्रयत्नों की अब तक की मूर्खता पर हँसी आये बिना न रही। मन-ही-मन अपने को उपालम्भ दिया : 'अरे कवि, तू कैसा मूढ़ है ! वणिक्-कुल में जन्म लेकर भी वणिक्-वृत्ति से तू इतना अनभिज्ञ ? महाजन के महावीर हृदय में विराजित नहीं, वे सुवर्ण कलश वाले मन्दिर के भीतर, रत्नों के सिंहासन पर, पाषाण-मूर्ति में प्रतिष्ठित हैं । वे सृजन में जीवन्त होकर, मानव के रक्त में संचरित हो जाएँ और पृथ्वी पर चलते दिखायी पड़ जाएँ, तो सत्ता-सम्पत्ति-स्वामियों के प्रतिष्ठानों में भूकम्प आ जाए, ज्वालामुखी फूट पड़ें ! . . , . . ' समझता भी कैसे अपने स्वकुल की यह रीति ? वणिक्-वंश में जन्म लेकर भी, हूँ तो आत्मा से ब्राह्मण और आचार से क्षत्रिय । अपने ही यदुवंश को प्रभुताप्रमत्त होते देखकर, लीला-पुरुषोत्तम कृष्ण ने स्वयं ही अपने वंश-विनाश का आयोजन किया था । उन्हीं मधुसूदन का आत्मज, प्रेमिक और सखा हूँ निदान मैं, अपनी अन्तश्चेतना में। ___ अपने ही भीतर से मन्त्र प्राप्त हो गया। · महावीर सम्पत्तिभूत मन्दिरों की पाषाणमूर्ति में बन्दी न रह सके । वे मेरे रक्त की राह, मेरी कलम पर उतर आये हैं । और अब जल्दी ही वे वैश्वानर विप्लव-पुरुष हिन्दुस्तान की धरती पर फिर से चलने वाले हैं । जीवन्त और ज्वलन्त होकर वे भारतीय राष्ट्र की शिराओं में संचरित होने वाले हैं । वासुदेव-सखा वणिक-वंशी कवि ने स्व-वंशनाश का पांचजन्य फंका है । स्वयं विदेह-पुत्र महावीर वैशाली के वैभव के विरुद्ध उठे हैं; अपनी ही नसों के जड़ीभूत रक्त पर उन्होंने प्रहार किया है; अपने ही आत्म-व्यामोह के दुर्ग में उन्होंने सुरंगें लगा दी हैं । इस जीवन्त और चलते-फिरते महावीर की क्या गति होगी, हिन्दुस्तान के चौराहों पर, सो तो वे प्रभु स्वयं ही जानें । कवि की कलम तो महज उन अनिर्वार क्रान्ति-पुरुष के पग-धारण का वाहन बनी है । कर्तृत्व मेरा नहीं, उन यज्ञेश्वर का है । मैं तो उनके यज्ञ की आहुति ही हो सकता हूँ । सो तो धरती पर जन्म लेने के दिन से होता ही रहा हूँ।
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तीर्थंकर | अप्रैल १९७४
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