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विस्मय से अवाक रह गया मैं ; आज तक ऐसा कोई जैन साधु वर्तमान में देखा-सुना नहीं था, जो मुग्ध हो सकता हो, जो 'रसो वै सः' के मर्म से परिचित हो। कठोर तप-वैराग्य में लीन और जीवन-जगत् की निःसारता को साँस-साँस में दुहराने वाला जैन श्रमण, साहित्य का ऐसा रसिक और विदग्ध भावक भी हो सकता है, ऐसा कभी सोचा ही नहीं था।
-वीरेन्द्रकुमार जैन एक नेता बोले--'हमारे फलाने भाई फलाने चन्द सेठ को अद्भुत बात सूझी है । १००) इनाम, लिख दो महावीर की जीवनी सारांश में--सिर्फ पच्चीस पृष्ठों में : खुली प्रतियोगिता है : जिसका लेख कमीटी पास कर देगी, उसे १००) का नकद पुरस्कार । वीरेन्द्र भाई, इस मौके का लाभ उठाने में चूकें नहीं।' सुन कर मेरे हृदय में उमड़ रहे महावीर रो आये । और उन भगवान् ने साक्षात् किया कि उनके धर्म-शासन के आज जो स्तम्भ माने जाते हैं, उन्हें महावीर से अधिक अपने अहंकार, व्यापार और जयजयकार में दिलचस्पी है । वे परस्पर पुष्पहार-प्रदान, सत्कार-सम्मान में ही अधिक व्यस्त हैं। महावीर से उनका कोई लेना-देना नहीं । वह मात्र उनकी प्रतिष्ठा और प्रतिष्ठान का साइन बोर्ड और विज्ञापन है । चतुर-चूड़ामणि गांधी भी जाने-अनजाने अपनी अहिंसा की ओट, ऐसे ही साइन बोर्ड बनने को मजबूर हुए थे । बक़ौल उन्हीं के, शोषण के अशुद्ध द्रव्य (साधन) से लायी गयी आजादी (साध्य),हिन्दुस्तान के दरिद्रनारायण की मुक्ति सिद्ध न हुई, वह मुठ्ठी भर सत्ता-सम्पत्ति-स्वामियों का स्वेच्छाचार होकर रह गयी ।
महावीर मेरे सृजन में उतरने को, मेरी धमनियों में उबल रहे थे । अपने रक्त की बूंद-बूंद में धधक रहे इस वैश्वानर का क्या करूँ ? भीतर बेशक आस्था अटल थी कि वे विश्वंभर स्वयम् ही सर्वसमर्थ हैं; सो वे यज्ञपुरुष अपने अवतरण के हवन-कुण्ड कवि को ठीक समय पर हव्य प्रदान करेंगे ही। पर मनुष्य होकर अपना प्रयत्न-पुरुषार्थ किये बिना चुप कैसे बैठ सकता था। अपनी कोशिशों के दौरान शासकीय उत्सव समिति के एक समर्थ 'निर्वाण-नेता' से मैंने पूछा : 'महानुभाव, क्या आपकी महद् योजना में भगवान पर कोई मौलिक सृजन करवाने की व्यवस्था है ?' दो टूक उत्तर मिला : ‘नहीं साहब, ऐसी कोई व्यवस्था नहीं ! 'मैंने कहा : 'आप तो साहित्य-मर्मज्ञ हैं, साहित्य के कद्रदाँ हैं, क्यों न ऐसी कोई व्यवस्था करवायें ?' बोले कि : ‘कई अदद कमेटियाँ निर्णायक हैं, उनमें कहाँ पता चल सकता है"आदि' अधिक पूछताछ करने पर पता चला कि कमेटियों के सामने कई बड़े-बड़े काम हैं-मसलन महावीर का स्मारक-मंदिर, महावीर-उद्यान, उसमें तीर्थंकर-मतियों की स्थापना
और जिनेश्वरों के उपदेशों का शिलालेखन, राष्ट्रव्यापी मेले और जलसे, महावीर-झंडा, महावीर-डायरी, महावीर-ग्रीटिंग निर्माण । अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह के उपदेशक आगम-वचनों के तख्ते गाँव-गाँव में और झाड़-झाड़ पर लटका देना है । आदि-आदि ।' ठीक ही तो है, इस धुआँधार में महावीर-काव्य का बेचारे का क्या मूल्य हो सकता है ?
मुनिश्री विद्यानन्द-विशेषांक
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