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________________ स्तोत्र', आचार्य अकलंक का 'अकलंक स्तोत्र,' जिनसेन का 'जिनसहस्रनाम,' तथा इसी तरह 'कल्याण मंदिर स्तोत्र,' 'भक्तामर स्तोत्र,' 'एकीभाव स्तोत्र' जैसे स्तोत्र संस्कृत साहित्य की अमूल्य निधियाँ हैं, जिन पर हम सभी को गर्व होना चाहिये। अपभ्रंश-साहित्य पर तो जैन विद्वानों का एकछत्र राज्य है, वास्तव में अपभ्रंश भाषा में रचनाएँ निबद्ध करके जैन विद्वानों ने इस भाषा-साहित्य की रक्षा ही नहीं की वरन् तत्कालीन जनभाषा में रचनाएँ लिखकर उन विद्वानों को ललकारा है, जो भाषा-व्यामोह के चक्कर में पड़कर एक भाषा से चिपके रहे हैं। प्राकृत एवं अपभ्रंश में सभी प्रमुख रचनाएँ जैन विद्वानों की हैं इसलिए इनकी रचनाओं पर जितना भी कार्य होगा वह सभी कार्य जैन संस्कृति का प्रकाशक ही माना जाएगा। अब वह जमाना आ गया है जब हमें महाकवि स्वयम्भू, पुष्पदन्त, वीर, नयनन्दि, रइधु जैसे अपभ्रंश-कवियों एवं आचार्य कुन्दकुन्द एवं नेमिचन्द्र जैसे प्राकृत भाषा के के आचार्यों की जयन्ती अथवा शताब्दि-समारोह मनाने चाहिये, जिससे इन कवियों के जीवन एवं साहित्य पर मात्र विशेष प्रकाश ही नहीं पड़ सके अपितु जन-साधारण को भी इन कवियों की महत्ता का बोध हो सके। जिस प्रकार संस्कृत में महाकवि कालिदास की अपार सेवाएँ हैं, उसी प्रकार प्राकृत भाषा में आचार्य कुन्दकुन्द तथा अपभ्रंश में महाकवि स्वयम्भू एवं पुष्पदन्त के नाम लिया जा सकता है। हिन्दी एवं राजस्थानी भाषा में शोध की कितनी आवश्यकता है इस बारे में जैनेतर विद्वानों को तो क्या सम्भवतः स्वयं जैन विद्वानों को भी पूरी जानकारी नहीं है। देश में सर्वप्रथम जैन विद्वान् ही थे जिन्होंने हिन्दी में विभिन्न प्रकार की कृतियाँ लिखकर उसके प्रसार में योग दिया। ईसा की दसवीं-ग्यारहवीं सदी से ही जैन विद्वानों की मौलिक रचनाएँ मिलने लगती हैं। प्रारम्भ में इन्होंने रास-संज्ञक रचनाओं के रूप में लिखा और फिर काव्य की विविध विधाओं को जन्म दिया। इन कवियों का अपभ्रंश साहित्य भी हिन्दी-साहित्य की पूर्वपीठिका के रूप में ही था, इसलिए देखा जाए तो जैन-विद्वान् ही हिन्दी-भाषा एवं साहित्य के वास्तविक प्रस्तोता थे। हिन्दी-साहित्य के आदिकाल के इतिहास में आज जो एक प्रकार की रिक्तता दीखती है उसका एक प्रमुख कारण यह है कि उस काल में जैन विद्वानों की रचनाओं को कोई स्थान नहीं मिला (वि. संवत् १४०० तक पचासों जैन रचनाएँ हैं, जिनको अब तक स्थान मिलना चाहिये था और जिनका साहित्यिक मूल्यांकन विद्वानों के समक्ष प्रस्तुत किया जाना चाहिये था )। हिन्दी का आदिकाल तो जैनविद्वानों का ही काल है जिन्होंने इस भाषा को प्रश्रय ही नहीं दिया वरन् प्राकृत एवं संस्कृत में रचनाएँ निबद्ध करना बन्द करके हिन्दी-भाषा में अपनी लेखन-शक्ति को लगाया। जिस राष्ट्रभाषा पर आज देश को गर्व है, उसकी नींव तो जैन विद्वानों ने अपनी तपस्या एवं लेखन-प्रतिभा से सींची थी । हिन्दी का यह पौधा जब हराभरा हो गया और हिन्दी-कृतियों की लोकप्रियता बढ़ने लगी तब कहीं जैनेतर मुनिश्री विद्यानन्द-विशेषांक २०१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520601
Book TitleTirthankar 1974 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1974
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size5 MB
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