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________________ इस प्रकार देश के सभी विश्वविद्यालयों में जैन विषयों पर शोध कार्य की दिशा में महत्त्वपूर्ण प्रगति हो रही है, यह तो एक सन्तोष का विषय है, लेकिन जैन साहित्य की विशालता एवं विविधता को देखते हुए अभी इस कार्य को आटे में नमक जैसा ही समझा जाना चाहिये। राजस्थान के जैन भण्डारों पर इस निबन्ध के लेखक ने कार्य किया है और इन भण्डारों में सुरक्षित साहित्य की विशालता से उसका थोड़ा परिचय भी है, इसलिए कहा जा सकता है कि अब तक हुआ कार्य केवल प्राथमिक सर्वे वर्क ही है जिसे अभी संपन्न नहीं कर सके हैं। जैनाचार्यों ने उत्तर एवं दक्षिण भारत की सभी भाषाओं में साहित्य-रचना की है। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती के अतिरिक्त दक्षिण की तमिल, तेलुगू, कन्नड एवं मलयालम में उनका अपार साहित्य मिलता है। प्राकृत साहित्य के इतिहास के अतिरिक्त अभी तक संस्कृत भाषा में जैनाचार्यों ने जो साहित्य-निर्माण किया है, उसका व्यवस्थित इतिहास कहाँ है ? कृतिशः मूल्यांकन तो दूर की बात है, अभी तक तो काव्य, पुराण, चरित्र, अध्यात्म, कथा, चम्पू, ज्योतिष, आयुर्वेद, गणित, नाटक, संगीत, पूजा, स्तोत्र जैसे प्रमुख विषयों पर जैनाचार्यों ने कितनी एवं किस शताब्दी में रचनाएँ की हैं, इस पर ही कोई कार्य नहीं हुआ है। जैन पुराणों में भारतीय संस्कृति के जो दर्शन होते हैं उसको तो अभी तक विद्वानों ने छुआ तक नहीं है । डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री ने जिस प्रकार 'आदिपुराण में प्रतिपादित भारत' पुस्तक लिखी है, उस प्रकार की पचासों पुस्तकों के लिखे जाने की संभावनाएं अभी गर्भित हैं। भगवत् जिनसेनाचार्य का 'हरिवंश पुराण'; रविषेण का 'पद्मपुराण', आचार्य गुणभद्र का 'उत्तर पुराण, हेमचन्द्रचार्य का 'त्रिषष्ठि शलाका पुरुषचरित्र, भ. सकलकीति के ‘आदि पुराण' 'वर्द्धमान पुराण' 'रामपुराण' जैसी कृतियाँ पुराणसाहित्य की बेजोड़ निधियाँ हैं, जिनका मूल्यांकन अभी प्रतीक्षित है। इन पुराणों के माध्यम से न केवल जैन संस्कृति एवं साहित्य की रक्षा हो सकी है; किन्तु उन्होंने भारतीय संस्कृति के अनेक अमूल्य तथ्यों को भी सुरक्षित रखा है। अब तक इन्हें 'पुराण' कहकर ही पुकारा जाता रहा है किन्तु नगण्य समझे जाने वाले पुराणों में संस्कृति, सभ्यता, रहन-सहन, व्यापार, युद्ध, राजनीति जैसे विषयों का कितना गहन विवेचन हुआ है इस ओर किसी का ध्यान नहीं गया है। उसी तरह संस्कृत-साहित्य की अन्य विधाओं के बारे में शोध-कार्य संभव हैं । संस्कृत का 'स्तोत्र-साहित्य' कितना विपुल है, इसका हम अभी अनुमान भी नहीं लगा सके हैं। राजस्थान के जैन-शास्त्र-भण्डारों की ग्रन्थ सूची, पंचम भाग में स्तोत्र-साहित्य के अन्तर्गत हमने ७०० से अधिक पाण्डुलिपियों का उल्लेख किया है। स्तोत्रों में आचार्यों एवं कवियों ने अपनी मनोगत भावनाओं को तो उँड़ेला ही है, साथ ही जन-भावनाओं के अनुसार भी उनकी रचना हुई है। ये कृतियाँ छंद, अलंकार एवं भाषा की दृष्टि से तो उच्चकोटि की रचनाएँ हैं ही किन्तु अध्यात्म, दर्शन, एवं व्यक्ति की दृष्टि से भी इन पर शोध-कार्य किया जा सकता है । आचार्य समन्तभद्र का 'स्वयम्भू २०० तीर्थंकर | अप्रैल १९७४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520601
Book TitleTirthankar 1974 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1974
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size5 MB
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