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में इसे एक महत्त्वपूर्ण शुरूआत अवश्य कहा जा सकता है और आशा की जाती है कि साहित्य-प्रकाशन में और भी संस्थाओं की रुचि बढ़ेगी।
जैन-साहित्य का अर्थ उस सभी साहित्य से है जो जैन विद्वानों द्वारा लिखा गया है चाहे वह किसी भाषा में हो, अथवा किसी विषय पर । निःसंदेह जैनाचार्यों एवं विद्वानों ने देश को प्रभूत साहित्य दिया है। उसकी सर्जना एवं सुरक्षा में अपने जीवन के स्वणिम दिनों को लगाया है। वह न तो देश-काल के प्रवाह में बहा है और न इसमें उसने जरा भी लापरवाही की है। देश पर कट्टर मुस्लिम शासन में भी जैनाचार्यों एवं श्रावकों ने साहित्य की जिस चतुरता से सुरक्षा की एवं उसमें संवर्द्धन किया उसकी जितनी भी प्रशंसा की जा सके कम है, लेकिन जैनाचार्यों द्वारा निबद्ध साहित्य को जैन-धार्मिक साहित्य कहकर कुछ वर्षों पूर्व तक उपेक्षा की जाती रही और उसे भाषा-साहित्य के इतिहास में किंचित् स्थान भी नहीं दिया गया । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के पश्चात् भी हिन्दी एवं संस्कृत के अधिकांश विद्वान् उस परम्परा से चिपके रहे और उन्होंने जैन विद्वानों द्वारा निबद्ध साहित्य की मौलिकता का मूल्यांकन करने का तनिक भी प्रयास नहीं किया।
सर्वप्रथम महापण्डित राहुल सांस्कृत्यायन ने स्वयम्भू के “पउमचरिउ” को हिन्दी-भाषा का आदि महाकाव्य घोषित करके हिन्दी विद्वानों को एक प्रकार से 'चैलेंज' दिया। यही नहीं उन्होंने अपभ्रंश को हिन्दी की पूर्वभाषा कहकर हिन्दीसाहित्य के उद्गम के अब तक के इतिहास को ही बदल डाला । राहुलजी द्वारा हिन्दी विद्वानों के ध्यानाकर्षण के पश्चात् जब जैन विद्वानों द्वारा अपभ्रंश भाषा में निबद्ध एक के पश्चात् एक काव्यों की उपलब्धि होती गयी तो हिन्दी के शीर्षस्थ विद्वानों को भी जैन विद्वानों द्वारा लिखे गये ग्रन्थों के मल्यांकन की आवश्यकता प्रतीत हुई। और डॉ. रामसिंह तोमर, हरिवंश कोछड़ एवं डॉ. एच. सी. भयाणी ने अपभ्रंश के विशाल साहित्य का विद्वानों को परिचय दिया । इस सम्बन्ध में श्री महावीर क्षेत्र के साहित्य शोध-विभाग द्वारा प्रकाशित एवं लेखक द्वारा सम्पादित प्रशस्ति संग्रह से हिन्दी विद्वानों को इस दिशा में कार्य करने की विशेष प्रेरणा मिली;
और इस पुस्तक के प्रकाशन के पश्चात् डॉ. हजारीप्रसादजी द्विवेदी-जैसे शीर्षक विद्वानों ने जैन-हिन्दी-साहित्य के प्रति अपने उद्गार प्रकट किये उसने भी विद्वानों का ध्यान बरबस अपभ्रंश एवं हिन्दी-साहित्य की और आकृष्ट करने में सफलता प्राप्त की।
१९५० ई. के पूर्व तक जैन-समाज में डॉ. हीरालाल जैन एवं डॉ. उपाध्ये ने ही अपभ्रंश साहित्य पर विशेष कार्य किया और पुष्पदन्त के महापुराण, जसहरचरिउ, णायकुमार चरिउ जैसे काव्यों का सम्पादन एवं प्रकाशन करके विद्वानों का ध्यान इस साहित्य की ओर आकृष्ट किया, लेकिन १९५० के पश्चात् अन्य जैन विद्वानों
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तीर्थंकर | अप्रैल १९७४
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