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जैन साहित्य : शोध की दिशाएं
देश में सर्वप्रथम जैन विद्वान ही थे जिन्होंने हिन्दी में विभिन्न प्रकार की कृतियाँ लिखकर उसके प्रसार में योग दिया । ईसा की दसवीं - ग्यारहवीं सदी से ही जैन विद्वानों की मौलिक रचनाएँ मिलने लगती हैं ।
-- डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल
बीसवीं शताब्दी भारतीय साहित्य के इतिहास में अभूतपूर्व प्रगति का प्रतीक मानी जाती है । इस शताब्दी में साहित्य की विभिन्न धाराओं को विकसित होने का अच्छा अवसर मिला है। यही नहीं आज भी ये धाराएँ अपने-अपने विकास की ओर तीव्र गति से बढ़ रही हैं। नये साहित्य के निर्माण के साथ-साथ प्राचीन साहित्य की खोज एवं उसके प्रकाशन को भी प्राथमिकता मिली है । इस शताब्दी का सबसे उल्लेखनीय कार्य शोध की दिशा में हुआ है जिसके सम्पादन में विश्व - विद्यालयों का प्रमुख योग रहा है । संस्कृत एवं हिन्दी के पचासों प्राचीन कवियों एवं लेखकों पर अनेक शोध-प्रबन्ध मात्र लिखे ही नहीं गये हैं अपितु प्रकाशित भी हो चुके हैं, जिनसे हमारे प्राचीन साहित्य के गौरव में तो वृद्धि हुई ही है साथ ही उन कवियों की साहित्यिक सेवाओं के मूल्यांकन करने में भी हम सफल हुए हैं । कालिदास, माघ, तुलसीदास, सूरदास, मीरा एवं कबीर - जैसे महाकवियों पर एक नहीं पचासों शोध-प्रबन्ध लिखे जा चुके हैं जिनमें उनके विभिन्न पक्षों पर गवेषणापूर्ण प्रकाश डाला गया है। अब तो ऐसा समय आने वाला है जब विद्या - थियों को शोध के लिए विषयों का चयन करना भी कठिन हो जाएगा और उन्हीं विषयों को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करने का प्रयास किया जाएगा ।
इधर के पचास वर्षों में जैन - साहित्य पर भी पर्याप्त कार्य हुआ है । यद्यपि विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में जैन विद्वानों द्वारा लिखे गये साहित्य को अभी तक मान्यता नहीं मिल सकी है; किन्तु सामाजिक संस्थाओं द्वारा जैन - साहित्य के प्रकाशन को पर्याप्त संरक्षण मिला है । इस दिशा में भारतीय ज्ञानपीठ, जीवराज ग्रंथमाला, शोलापुर, साहित्य - शोध - विभाग, जयपुर; पार्श्वनाथ विद्याश्रम, वाराणसी; वीर सेवा मंदिर, देहली; माणिकचन्द्र ग्रंथमाला, बम्बई; दिगम्बर जैन पुस्तकालय, सूरत; रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला, बम्बई, आदि संस्थाओं द्वारा गत पचास वर्षों में जो प्रकाशन हुआ है यद्यपि उसे पर्याप्त नहीं कहा जा सकता तथापि इस दिशा
मुनिश्री विद्यानन्द - विशेषांक
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