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अनन्य प्रेम में वह शक्ति होती है कि स्वयं भगवान् भक्त के पास आते हैं। भक्त नहीं जाता। जब भगवान् आते हैं, तो भक्त के आनन्द का पारावार नहीं रहता। आनन्दघन की सुहागन नारी के नाथ भी स्वयं आये हैं, और अपनी तिया को प्रेम-पूर्वक स्वीकार किया है। लम्बी प्रतीक्षा के बाद आये नाथ की प्रसन्नता में, पत्नी ने भी विविध भाँति के शृंगार किये हैं। उसने प्रेम, प्रतीति, राग और रुचि के रंग की साड़ी धारण की है, भक्ति की महँदी रांची है और भाव का सुखकारी अंजन लगाया है। सहज स्वभाव की चूड़ियाँ पहनी हैं और थिरता का भारी कंगन धारण किया है। ध्यान-रूपी उरबसी-गहना वक्षस्थल पर पड़ा है, और प्रिय के गुण की माला को गले में पहना है। सुख के सिन्दूर से मांग को सजाया है और निरति की वेणी को ठीक ढंग से गूंथा है। उसके घट में त्रिभुवन की सब-से-अधिक प्रकाश्यमान ज्योति का जन्म हुआ है। वहाँ से अनहद का नाद भी उठने लगा है। अब तो उसे लगातार एकतान से पियरस का आनन्द उपलब्ध हो रहा है।" ___ ठीक इसी भाँति बनारसीदास की नारी के पास भी निरञ्जनदेव स्वयं प्रगट हुए हैं। उसे इधर-उधर भटकना नहीं पड़ा। अब वह अपने खञ्जन-जैसे नेत्रों से उसे पुलकायमान होकर देख रही है। उसकी पुलक का ठिकाना नहीं है। वह प्रसन्नताभरे गीत गा उठी। पाप और भय स्वतः विलीन हो गये। उसका साजन असाधारण है, कामदेव-सा सुन्दर और सुधारस-सा मधुर । उसका आनन्द अनिर्वचनीय है, शाश्वत है-कभी मिटता नहीं, चुकता नहीं। सुहागन को वह अक्षय रूप से प्राप्त हुआ है। -
जैन दर्शन को सहज उद्भूति : अनेकान्त (पृष्ठ १७८ का शेष) हम उसे अन्य कोणों से भी देख पाते । वह उतना ही नहीं है जितना हमें दिखायी देता है । निश्चित रूप से वह उसके अलावा भी है। वह अनन्तधर्मा विराट महाशक्ति है। उसके लिए अपनी सत्ता और सम्पत्ति के परिग्रह को कम करें। यही अनेकान्त-दृष्टि का लोक व्यवहारगत रूप है। महावीर ने इसे अपने जीवन में घटित किया । वे परिग्रह से सर्वथा मुक्त हो गये। उन्हें न धन का परिग्रह था, न सत्ता का और न यश का । आज गृहस्थ ही नहीं संन्यासी भी इन परिग्रहों से मुक्त नहीं हैं। संन्यासियों में यश बटोरने की ही होड़ लगी हुई है और यश आ गया तो शेष सब कुछ तो स्वतः आता रहता है। परिग्रह हजार सूक्ष्म पैरों से चल कर हमारे पास आता है और हम ग़फ़लत में पकड़ लिये जाते हैं। हम संग्रह-विश्वासी बन गये हैं । त्याग कर ही नहीं सकते। त्याग करते भी हैं तो और अधिक परिग्रह के लिए त्याग करते हैं। धन को त्याग कर यश और यश को त्याग कर धन घर में रख लिया जाता है। महावीर की समाज-व्यवस्था अपरिग्रह पर आधारित है और एक-न-एक दिन हमें उसी की शरण में जाना होगा ।
इस प्रकार अनेकान्त सम्पूर्ण जैन दर्शन की आधारशिला है। चिन्तन, वाणी, आचार, और समाज-व्यवस्था सभी के लिए वह एक सही दिशा है; लेकिन वह आरोपित नहीं है, वस्तु-स्वरूप को वैज्ञानिक ढंग से समझने का सहज परिणाम है।
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तीर्थकर | अप्रैल १९७४
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