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वलम्ब ध्यान। सालम्ब ध्यान वह ही है, जिसमें मन को पंचपरमेष्ठी पर टिकाना होता है। इसी भाँति आचार्य वसुनन्दि ने ध्यान और भावपूजा को एक मान कर, ध्यान और भक्ति की एकता सिद्ध की है। पूजा भक्ति का मुख्य अंग है। उसके दो भेद हैं--भावपूजा और द्रव्यपूजा। भावपूजा परम भक्ति के साथ जिनेन्द्र के अनन्तचतुष्टय आदि गुणों पर मन को केन्द्रित करना है।
सामायिक एक ध्यान ही है। आचार्य समन्तभद्र ने मन को संसार से हटाकर आत्मस्वरूप पर केन्द्रित करने को सामायिक कहा है। ध्यान होने से सामायिक भी भक्ति ही है। पं. जयचन्द्र छाबड़ा ने 'चरित्रपाहुड' का अनुवाद करते हुए एक स्थान पर लिखा है, “एकान्त स्थान में बैठकर अपने आत्मिक स्वरूप का चिन्तवन करना अथवा पंचपरमेष्ठी का भक्तिपाठ पढ़ना सामायिक है।” आचार्य सोमदेव ने भी 'यशस्तिलक' में स्नान, पूजन, स्तोत्र, जप, श्रुतस्तव और ध्यान की एकता सिद्ध करते हुए सभी को सामायिक कहा है। आचार्य श्रुतसागरसूरि ने एकाग्र मन से देव-वन्दना को सामायिक मान कर भक्ति की ही प्रतिष्ठा की है। आचार्य अमितगति का सामायिक पाठ तो भक्ति-पाठ ही है।
जैनाचार्यों ने समाधि को उत्कृष्ट ध्यान के अर्थ में लिया है। उनके अनुसार चित्त का सम्यक् प्रकार से ध्येय में स्थित हो जाना ही समाधि है। समाधि में निर्विकल्पक अवस्था तक पहुँचने के पूर्व मन को पंचपरमेष्ठी पर टिकाना अनिवार्य है। भक्त भी अपना मन पंचपरमेष्ठी में तल्लीन करता है, अतः दोनों अवस्थाओं में कोई अन्तर नहीं है। आचार्य कुन्दकुन्द ने प्राकृत में और आचार्य पूज्यपाद ने संस्कृत में 'समाधिभक्ति' की रचना की है। इस भक्ति में समाधि, समाधिस्थों और समाधिस्थलों के प्रति सेवा, श्रद्धा और आदर-सत्कार का भाव प्रगट किया गया है।
___ तो, ज्ञान और भक्ति का जैसा समन्वित रूप जैन ग्रन्थों में देखने को मिलता है, अन्यत्र नहीं। बनारसीदास की सुमति ने भक्ति बन कर जिस आराध्य को साधा वह निराकार था और साकार भी, एक था और अनेक भी, निर्गुण था और सगुण भी। इसी कारण जैनकवियों ने सगुण का समर्थन करने के लिए निर्गुण का खण्डन नहीं किया और निर्गुण की आराधना के लिए सगुण राम पर रावण की हत्या का आरोप नहीं लगाया। वे निर्द्वन्द्व हो दोनों के गीत गा सके। कवि बनारसीदास ने "नाना रूप भेष धरे भेष को न लेस धरे, चेतन प्रदेस धरे चेतना को खंध है।" कह कर साकार कहा और निराकार भी। इसी भाँति उन्होंने एक ही ब्रह्म को “निर्गुण रूप निरञ्जन देवा, सगुण स्वरूप करें विधि सेवा।" लिख कर निर्गुण कहा और सगुण भी। यह एक अनेकान्तात्मक परम्परा थी, जो बनारसी को जन्म से मिली थी। इस परम्परा का जाने और अनजाने कबीर पर भी प्रभाव पड़ा, ऐसा उनके काव्य से सिद्ध है। कबीर को निर्गुण ब्रह्म का उपासक कहा जाता है। निर्गुण का
मुनिश्री विद्यानन्द-विशेषांक
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