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________________ भक्ति ज्ञान से मिलती है। शायद जैनाचार्यों ने इसी कारण अपने प्रसिद्ध सूत्र 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:' में सम्यग्दर्शन को प्रथम स्थान दिया है। दर्शन का अर्थ है श्रद्धा। कोरी श्रद्धा नहीं, उसे सम्यक् पद से युक्त होना ही चाहिये । आचार्य समन्तभद्र सुश्रद्धा के पक्षपाती थे। यहाँ सु सम्यक्त्व का द्योतक है। सम्यग्दर्शन और ज्ञान दोनों एक दूसरे के आश्रित हैं। अन्योन्याश्रित हैं। एक दूसरे के बिना अधूरे हैं। दोनों में जैसा समन्वय जैन काव्यों में निभ सका, अन्यत्र नहीं। इसका कारण है-स्वात्मोपलब्धि । स्वात्मा का अर्थ है वह आत्मा जो अष्टकर्मों के मलीमस् से छूट कर विशुद्ध हो चुकी है। वही सिद्ध कहलाती है। उसे निष्कल भी कहते हैं। वह निराकार, अदृष्ट और अमूर्तिक होती है। सिद्ध के रूप में और इस देह में विराजमान शुद्ध आत्म चैतन्य में कोई अन्तर नहीं है। यही स्वात्मा पंचपरमेष्ठी में होती है। पंचपरमेष्ठी में सिद्ध की बात की जा चुकी है, वह निराकार और अदृष्ट है, किन्तु अवशिष्ट चार परमेष्ठी-अर्हन्त, आचार्य, उपाध्याय और साधु साकार, दृष्ट और मूर्तिक होते हैं; किन्तु 'स्वात्मा' की दृष्टि से दोनों में कोई अन्तर नहीं है। अतः चाहे ज्ञानी अपने समाधि-तेज से उस आत्मा में अभेद की स्थापना करे अथवा भक्त भगवन्निष्ठा से वहाँ तक पहुंचे, एक ही बात है। दोनों को अनिर्वचनीय आनन्द का स्वाद समान रूप से मिलता है। साकार और निराकार के मूलरूप में कोई अन्तर नहीं है, एसा जैनाचार्यों ने एकाधिक स्थलों पर लिखा। इसी कारण उनकी दृष्टि में आत्मनिष्ठा और भगवन्निष्ठा में कोई अन्तर नहीं है। ज्ञान और भक्ति के ध्यान की बात भी अप्रासंगिक नहीं होगी। श्रमणधारा आज से नहीं, युग-युग से ध्यान और भक्ति में एकरूपता मानती रही है। आचार्य उमास्वाति ने “एकाग्र्य चिन्तानिरोधो ध्यानम्" कहा, तो आचार्य पूज्यपाद ने "नानार्थावलम्बनेन चिन्तापरिस्पन्दवती, तस्यान्याशेषमुखेभ्यो व्यावर्त्य एकस्मिन्नग्रे नियम एकाग्रचिन्तानिरोध इत्युच्यते। अनेन ध्यानस्वरूपमुक्तं भवति।" लिखा। सार है कि मन को सब चिन्ताओं से मुक्त करके एक में केन्द्रित करना ध्यान है; अर्थात् मन को आत्मा में केन्द्रित करने को ध्यान कहते हैं। भक्त भक्ति के द्वारा अपने इष्टदेव में मन को टिकाता है। नानार्थावलम्बनेनपरिस्पन्दवती चिन्ता से मन को व्यावर्त्य करना दोनों को अमीष्ट है। उसके बिना मन न तो इष्टदेव पर टिकता है और न आत्मा पर केन्द्रित होता है। इस प्रकार भक्ति और ध्यान में कोई अन्तर नहीं है। आचार्य कुन्दकुन्द की दृष्टि में, "पंचपरमेष्ठी का चिन्तवन, आत्मा का ही चिन्तवन है।" आचार्य योगीन्दु ने भी लिखा है, "जो जिन भगवान् है, वह ही आत्मा है, यह ही सिद्धान्त का सार समझो।" श्री देवसेन ने आधार की दृष्टि से, 'भावसंग्रह' नाम के ग्रन्थ में, ध्यान के दो भेद किये हैं-सालम्ब ध्यान और निर १८४ तीर्थंकर | अप्रैल १९७४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520601
Book TitleTirthankar 1974 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1974
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size5 MB
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