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जैन भक्ति अहैतक भक्ति-मार्ग
एक ही आत्मा के दो रूप-एक, मिथ्यात्व में डूबा है किन्तु जगकर अन्तरात्मा होकर; दूसरा रूप शुद्धविशुद्ध परमात्मा की ओर मुड़ता है। जीवन में बहुत मोड़ आते हैं किन्तु आत्मा का यह मोड़ अनोखा होता है-सुहाग और ललक-भरा । प्रियमिलन की ललक, कौन तुलना कर सका है उसकी ? अनिर्वचनीय की पियास जिसमें जग गयी, वह स्वयं अवक्तव्य हो जाता है।
--डा. प्रेमसागर जैन
जैनग्रन्थों में भक्ति से मुक्ति वाली बात एकाधिक स्थलों पर मिलती है। जैन आचार्यों ने इसे सिद्धान्त रूप से स्वीकार किया तो जैन कवियों ने स्थान-स्थान पर भगवान् से मुक्ति की याचना की। उनकी याचना विफल हुई हो, ऐसा नहीं है। उन्हें मुक्ति मिलने का पूर्ण विश्वास था और वह पूरा हुआ। मुक्ति तो वैष्णव, शैव, ईसाई, पारसी सभी भक्तों को उनके आराथ्य देवों ने दी; किन्तु यहाँ थोड़ा-सा अन्तर है। गज को ग्राह से बचाने के लिए जैसे विष्ण विष्णु-लोक से दौड़े आये, वैसे जैन भगवान् नहीं दौड़ता। वह अपने स्थान से हिलता भी नहीं । इस पर, एक भक्त तो विलाप करते हुए कह उठा-"जो तुम मोख देत नहिं हमको, कहो जायें किहि डेरा।" किन्तु जिनदेव पसीजे नहीं। एक दूसरे स्थान पर, एक दूसरे कवि ने कहा--"जगत में सो देवन को देव । जासु चरन परसें इन्द्रादिक, होय मुकति स्वयमेव ।” यहाँ भी भगवान् दौड़कर नहीं आया । भक्त स्वयं गया, चरणों का स्पर्श किया और उसे मुक्ति मिल गयी। वास्तविकता यह है कि 'जिनेन्द्र' कर्ता नहीं हैं, फिर वे मुक्ति देने का काम भी नहीं कर सकते, तदपि जैन भक्त कवि उनसे मुक्ति मांगते रहे और वह उन्हें मिलती भी रही; कैसे ?
मुनिश्री विद्यानन्द-विशेषांक
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