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निराकार को
निराकार को ढालना कैसे बने इस ध्यान में मने-अनमने
कुछ साँचे
भवानीप्रसाद मिश्र
पकाये मैंने डालकर आँच में। साँचे कुछ ठीक-ठीक पक गये
और ढालने लगा मैं उनके बल पर निराकार को आकार में विचित्र मगर एक बात हुई ढालते-ढालते निराकार को आकार में साँचे जानदार हो गये जो पहले ठीक-ठीक पक गये थे । अब जान आ जाने पर वे यंत्रवत आकार ढालने से थक गये सांचे मेरे बावजूद सोचने लगे कि आकारों को सीमित किया जाए जितना जीवन पिया जाए प्यासी धरती से उसे उससे ज्यादा न पिलायें
माना कि सुंदर होता है निराकार से आकार मगर हर इंच पर उसे फूल की तरह न खिलायें छोड़ दिये जाएँ खाली लंबे-चौड़े मैदान ध्वनि और शब्द
और गान रहें मगर ऐसे भी कान रहें जो चुप्पी को सुन लें ऐसी भी रहें आँखें जो शून्य में से चुन लें मन के सुख अंतर से अंतर के दुःख।
तीर्थकर | अप्रैल १९७४
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