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पाँच
सात
तप्त-कनक-आभा-शरीर भी जो विदेह है होकर एक अखिल भी है जो ज्ञान-गेह है जो अज होकर भी सिद्धार्थ-तनय बन आये श्री-सुषमा-संपन्न दिव्यलोकों तक छाये वे अद्भुत गति परम अलौकिक सन्मति-स्वामी उतरें मेरे प्राणों में लोचन-पथगामी !
त्रिभुवनी-जयी काम को जिसने जीत लिया कैशोर काल में मुक्ति-सूर्य को सुलभ कर दिया जिस सुख-निधि ने जगज्जाल में बन्धु-विदित महिमा मंगलकर अपने-आप प्रसन्न भाव से नयन-पन्थ से आ उतरें वे मन-तट पर जाज्वल्य नाव से !
आठ
छह
उक्ति-तरंगों से जिनकी वाणी-गंगा कल-कल-मधुरा है जिनके जल से स्नात भक्त-दल महाज्ञान-तट पर उभरा है। विमल बुद्धि के हंस आज भी जिसे छोड़कर कहीं न जाते नयन-पन्थ से वे सन्मति-प्रभु मन व्याकुल है, भीतर आते !
माहमोह-आतंक-व्याधि के हे धन्वन्तरि ! बन्धु-विदित महिमा मंगलकर साधु शरण्य सहज सर्वोपरि भव-भय हरें, प्रणत जन के आनन्द बढ़ायें नयन-पन्थ से उतरें मन के भीतर आयें !
(महावीराष्टक- मूल : कविवर भागचन्द्रजी)
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तीर्थंकर | अप्रैल १९७४
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