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________________ पाँच सात तप्त-कनक-आभा-शरीर भी जो विदेह है होकर एक अखिल भी है जो ज्ञान-गेह है जो अज होकर भी सिद्धार्थ-तनय बन आये श्री-सुषमा-संपन्न दिव्यलोकों तक छाये वे अद्भुत गति परम अलौकिक सन्मति-स्वामी उतरें मेरे प्राणों में लोचन-पथगामी ! त्रिभुवनी-जयी काम को जिसने जीत लिया कैशोर काल में मुक्ति-सूर्य को सुलभ कर दिया जिस सुख-निधि ने जगज्जाल में बन्धु-विदित महिमा मंगलकर अपने-आप प्रसन्न भाव से नयन-पन्थ से आ उतरें वे मन-तट पर जाज्वल्य नाव से ! आठ छह उक्ति-तरंगों से जिनकी वाणी-गंगा कल-कल-मधुरा है जिनके जल से स्नात भक्त-दल महाज्ञान-तट पर उभरा है। विमल बुद्धि के हंस आज भी जिसे छोड़कर कहीं न जाते नयन-पन्थ से वे सन्मति-प्रभु मन व्याकुल है, भीतर आते ! माहमोह-आतंक-व्याधि के हे धन्वन्तरि ! बन्धु-विदित महिमा मंगलकर साधु शरण्य सहज सर्वोपरि भव-भय हरें, प्रणत जन के आनन्द बढ़ायें नयन-पन्थ से उतरें मन के भीतर आयें ! (महावीराष्टक- मूल : कविवर भागचन्द्रजी) १७० तीर्थंकर | अप्रैल १९७४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520601
Book TitleTirthankar 1974 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1974
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size5 MB
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