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________________ कामना और स्वार्थसाधना की सुशृंखल और सुनियोजित देन वह थी। दूसरे शब्दों में तलवार और कलम का मिला-जुला कमाल वह था, जिसने शोषण के द्वार खोले, मानव-समता की अनुभूति को खण्डित किया, सामाजिक उच्चता-निम्नता के तमगे लगाकर सामाजिक-आर्थिक विभेदों के उतँग दुर्ग खड़े किये । बीसवीं सदी के इस अन्तिम चरण में महावीरकालीन समाज की अपेक्षा शत-शत गुनी हिंसा और दमन-शोषण, वर्गभेद की प्राचीरें खड़ी की गयी हैं। पंजीवादी अमरीका हो, या समाजवादी रूस, सर्वनाश की सामग्री के निर्माण की होड़ाहोड़ी में सब लगे हैं। इन दो मुल्कों के अलावा फ्रान्स और चीन ने भी अणुबम-उद्जनबम और प्रक्षेपास्त्रों के अम्बार-केअम्बार संग्रहीत कोष में सुरक्षित रखे हैं । बहाना है कि हिंसा के सर्वनाशमयी प्रलयंकर ताण्डव को हिंसा के मुकाबले की ताकत खड़ी करके ही रोका जा सकता है। “वार डिटरेंट्स" के इस छलनामयं प्रपंच में आज का विश्व सर्वनाश के कगार पर आ खड़ा हुआ है और उसने समंदर की अतल गहराइयों और आसमान की अछूती ऊँचाइयों को नापने के अपने वैज्ञानिक और काल्पनिक उपक्रम को अनवरत जारी रखा है। महावीर ने अहिंसा से अपरिग्रह तक पहुँचने की सीढ़ी बतायी है। आज के युगसंदर्भ में परिग्रह से हिंसा तक का मार्ग प्रशस्त होता दीख पड़ रहा है। अभाव, आवश्यकता और अदम्य वासनाओं के घेरे में बंधा मानव-मन परिग्रह का परिमाणन नहीं करना चाहता; वर्तमान से असंतोष और भविष्य के प्रति निराशा या कि वर्तमान से बगावत और भविष्य के स्वर्णिम स्वप्न या अतीत का व्यामोह, वर्तमान से शिकायत के इर्द-गिर्द संसार की धुरी डांवाडोल है। स्वतन्त्रता के पच्चीस वर्ष बाद आज तृष्णा, बुभुक्षा, अमीरी-गरीबी, विपुलताविपन्नता की खाई और अधिक चौड़ी होती नजर आती है; फलतः करुणा-क्रोध के बीच समन्वय की दृष्टि ओझल है। करुणा निराशा में और क्रोध हिंसा में बड़ी तेज गति से बदल रहे हैं। राजकुमार महावीर तीर्थंकर महावीर के जीवन, चिन्तन और कर्म का मर्म हमारी राष्ट्रीय समस्याओं का समाधान कर सकता है। राजनीति का रथ पिछले बीस वर्षों में निर्माण-पथ पर मील के पत्थर गाड़ने में एक सीमा तक सफल हुआ है, इस तथ्य से मुंह मोड़ना एक तरह से सत्य की अनदेखी ही होगी। तृष्णा, परिग्रह और परिग्रह की पूंजीवादी मनोवृत्ति के मुकाबले राजनीति के धुरीधरों ने समाजवादी समाज-रचना और जनतान्त्रिक समाजवाद की मंजिलों के धुंधले मानचित्र बनाये हैं; किन्तु यह विडम्बना ही है कि राष्ट्रीय पूंजी बढ़ने की अपेक्षा चन्द पूंजीपतियों ने अपनी सम्पदा और पूंजी को समृद्ध करने में सरकार को मात दी है। अमीरी - तीर्थंकर | अप्रैल १९७४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520601
Book TitleTirthankar 1974 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1974
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size5 MB
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