SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 152
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्यक्त करने का हमारे एवं दूसरे व्यक्तियों के पास जो साधन है उसकी कितनी सीमाएँ हैं। काल की दृष्टि से भाषा के प्रत्येक अवयव में परिवर्तन होता रहता है। क्षेत्र की दृष्टि से भाषा के रूपों में अन्तर होता है। हम जिन शब्दों एवं वाक्यों से संप्रेषण करना चाहते हैं उसकी भी कितनी सीमाएँ हैं। "राधा गाने वाली है" इसका अर्थ दो श्रोता अलग-अलग लगा सकते हैं। प्रत्येक शब्द भी 'वस्तु' को नहीं किसी वस्तु के भाव को बतलाता है जो वक्ता एवं श्रोता दोनों के सन्दर्भ में बुद्धिस्थ मात्र होता है। “प्रत्येक व्यक्ति अपने घर जाता है" किन्तु प्रत्येक का 'घर' अलग होता है। संसार में एक ही प्रकार की वस्तु के लिए कितने भिन्न शब्द हैं-इसकी निश्चित संख्या नहीं बतलायी जा सकती। एक ही भाषा में एक ही शब्द भिन्न अर्थों और अर्थ-छायाओं में प्रयुक्त होता है, इसी कारण अभिप्रेत अर्थ की प्रतीति न करा पाने पर वक्ता को श्रोता से कहना पड़ता है कि मेरा यह अभिप्राय नहीं था अपितु मेरे कहने का मतलब यह था-दूसरे के अभिप्राय को न समझ सकने के कारण इस विश्व में कितने संघर्ष होते हैं? स्याद्वाद वस्तु को समग्र रूप में देख सकने; वस्तु के विरोधी गुणों की प्रतीतियों द्वारा उसके अन्तिम सत्य तक पहुँच सकने की क्षमता एवं पद्धति प्रदान करता है। जब कोई व्यक्ति खोज के मार्ग में किसी वस्तु के सम्बन्ध में अपने ‘सन्धान' को अन्तिम मानकर बैठ जाना चाहता है तब स्याद्वाद सम्भावनाओं एवं शक्यताओं का मार्ग प्रशस्त कर अनुसन्धान की प्रेरणा देता है। स्याद्वाद केवल सम्भावनाओं को ही व्यक्त करके अपनी सीमा नहीं मान लेता प्रत्युत समस्त सम्भावित स्थितियों की खोज करने के अनन्तर परम एवं निरपेक्ष सत्य को उद्घाटित करने का प्रयास करता है। स्याद्वादी दर्शन में 'स्यात्' निपात 'शायद', 'सम्भवतः', 'कदाचित्' का अर्थवाहक न होकर समस्त सम्भावित सापेक्ष्य गणों एव धर्मों का बोध कराकर ध्रुव एवं निश्चय तक पहुँच पाने का वाहक है; 'व्यवहार' में वस्तु में अन्तविरोधी गुणों की प्रतीति कर लेने के उपरान्त 'निश्चय' द्वारा उसको उसके समग्र एवं अखण्ड रूप में देखने का दर्शन है। हाथी को उसके भिन्न-भिन्न खण्डों से देखने पर जो विरोधी प्रतीतियाँ होती हैं उसके अनन्तर उसको उसके समग्र रूप में देखना है। इस प्रकार यह संदेह उत्पन्न करने वाला दर्शन न होकर सन्देहों का परीक्षण करने के उपरान्त उनका परिहार कर सकने वाला दर्शन है। यह दर्शन तो शोध की वैज्ञानिक पद्धति है। “विवेच्य” को उसके प्रत्येक स्तरानुरूप विश्लेषित कर विवेचित करते हुए वर्गबद्ध करने के अनन्तर संश्लिष्ट सत्य तक पहुँचने की विधि है। विज्ञान केवल जड़ का अध्ययन करता है। स्याद्वाद ने प्रत्येक सत्य की खोज की पद्धति प्रदान की है। इस प्रकार यदि हम प्रजातन्त्रात्मक युग में वैज्ञानिक ढंग से सत्य का साक्षात्कार करना चाहते हैं तो अनेकान्त से दृष्टि लेकर स्याद्वादी प्रणाली द्वारा ही वह कर सकते हैं। महान वैज्ञानिक आइन्स्टीन का सापेक्षवाद एवं जैन-दर्शन का अनेकान्तवाद वैचारिक धरातल काफी निकट है। आइन्स्टीन मानता है कि विविध सापेक्ष्य स्थितियों मुनिश्री विद्यानन्द-विशेषांक १५३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520601
Book TitleTirthankar 1974 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1974
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy