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________________ है कि आत्मा अपने स्वयं के उपार्जित कर्मों से ही बँधता है तथा कृतकर्मों को भोगे बिना मुक्ति नहीं है-- सयमेव क.हिं गाहइ नो तस्स मुच्चेज्जडपुट्ठयं' --सूत्रकृतांग १।२।१।४ जब सर्व कर्मों का क्षय होता है तो प्रत्येक जीव अनन्त ज्ञान, अनन्त वीर्य, अनन्त दर्शन तथा अनन्त शक्ति से स्वतः सम्पन्न हो जाता है। इसके अतिरिक्त जैन-दर्शन में अहिंसावाद पर आधारित क्षमा, मैत्री, स्वसंयम एवं पर-प्राणियों को आत्म-तुल्य देखने की भावना पर बहुत बल दिया गया है। इस विचार के पालन से परस्पर सौहार्द एवं बन्धुत्व के वातावरण का सहज निर्माण सम्भव है। जैन-दर्शन में यह भी निरूपित किया गया है कि जो ज्ञानी आत्मा इस लोक में छोटे-बड़े सभी प्राणियों को आत्म-तुल्य देखते हैं, षद्रव्यात्मक इस महान् लोक का सूक्ष्मता से निरीक्षण करते हैं तथा अप्रमत्तभाव से संयम में रहते हैं वे ही मोक्ष-प्राप्ति के अधिकारी हैं। इसी कारण आचार्य समन्तभद्र ने भगवान् महावीर के उपदेश को 'सर्वोदय-तीर्थ' कहा है। आधुनिक बौद्धिक एवं तार्किक युग में दर्शन ऐसा होना चाहिये जो आग्रहरहित दृष्टि से सत्यान्वेषण की प्रेरणा दे सके। इस दृष्टि से जैन-दर्शन का अनेकान्तवाद व्यक्ति के अहंकार को झकझोरता है; उसकी आत्यन्तिक दृष्टि के सामने प्रश्नवाचक चिह्न लगाता है। अनेकान्तवाद यह स्थापना करता है कि प्रत्येक पदार्थ में विविध गुण एवं धर्म होते हैं। सत्य का सम्पूर्ण साक्षात्कार सामान्य व्यक्ति द्वारा एकदम सम्भव नहीं हो पाता। अपनी सीमित दृष्टि से देखने पर हमें वस्तु के एकांगी गुण-धर्म का ज्ञान होता है। विभिन्न कोणों से देखने पर एक ही वस्तु हमें भिन्न प्रकार की लग सकती है तथा एक स्थान से देखने पर भी विभिन्न दृष्टाओं की प्रतीतियाँ भिन्न हो सकती हैं। भारत में जिस क्षण कोई व्यक्ति 'सूर्योदय' देख रहा है; संसार में दूसरे स्थल से उसी क्षण किसी व्यक्ति को 'सूर्यास्त' के दर्शन होते हैं। व्यक्ति एक ही होता है---उससे विभिन्न व्यक्तियों के अलग-अलग प्रकार के सम्बन्ध होते हैं। एक ही वस्तु में परस्पर दो विरुद्ध धर्मों का अस्तित्व सम्भव है। इसमें अनिश्चितता की मनःस्थिति बनाने की बात नहीं है; वस्तु के सापेक्ष दृष्टि से विरोधी गुणों को पहचान पाने की बात है। सार्वभौमिक दृष्टि से देखने पर जो तत्स्वरूप है, एक है, सत्य है, नित्य है वही सीमित एवं व्यावहारिक दृष्टि से देखने पर अतत्, अनेक, असत्य एवं अनित्य है। पदार्थ को प्रत्येक कोण से देखने का प्रयास करना चाहिये। हम जो कह रहे हैं केवल यही सत्य है-यह हमारा आग्रह है। हम जो कह रहे हैं-यह भी अपनी दृष्टि से ठीक हो सकता है। हमें यह भी देखना चाहिये कि विचार को १५२ तीर्थकर | अप्रैल १९७४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520601
Book TitleTirthankar 1974 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1974
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size5 MB
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