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________________ द्वार से द्वार (कोटद्वार-श्रीनगर-हरद्वार) ___ मुनिश्री ने हिमालय पर आरोहण किया-प्रारम्भिक स्थान कोटद्वार था और अन्तिम हरद्वार । आदि-अन्त दोनों द्वार, साथ ही मध्यद्वार भी । न जाने मुनिश्री को इस यात्रा में कितने द्वार मिले ? दीनद्वार, दुखीद्वार, श्रावकद्वार, श्राविकाद्वार आदि; इनके अतिरिक्त और भी अनेकों द्वार थे-अमुक नदीद्वार, अमुक झरनाद्वार, अमुक नगरद्वार, अमुक उपत्यकाद्वार आदि । मुनिश्री बढ़े, साथी बढ़े, जल्दी बढ़े, धीरे बढ़े। बढ़े, बढ़े और बढ़े ! मुनिश्री ने हिमालय में १९७ दिन व्यतीत किये । इस यात्रा में वे तिब्बत की सीमा माणागाँव और नीलगिरि के सान्निध्य तक पहुँचे । बद्रीविशाल आदि मूलस्थिति, डिमरी जाति का प्राचीनतम (दिगम्बरत्व ) इतिहास आदि अनेक महत्वपूर्ण तथ्यों के उद्घाटन इस यात्रा में हुए । यात्रा के बहाने आदि तीर्थंकर के विहार-तपस्थल आदि पर भी जनजागरण हुआ। सर्वधर्माराधकों में दिगम्बरत्व की प्रतिष्ठा होना इस युग की नयी बात है। कुछ लोगों का स्वभाव होता है-वे अवसर मिलते ही, दबे मुँह ही सही, गुणवानों में दोष निरीक्षक दृष्टि रखते हैं। फलतः एक बार एक महामान्य मुझसे बोल उठे'विद्यानंदजी तो राजनीति में पड़ गए और वे मुक्ति के स्थान पर यश की उपासना भी करने लगे।' मैं कहाँ चुप रहने वाला था। झट बोल उठा-'इस युग में दक्षिण ने उत्तर को अनेक विभूतियाँ दी हैं। पू. आ. शान्तिसागरजी भी उन्हीं में थे। आ. श्री देशभषणजी के शिष्य मुनिश्री विद्यानन्द भी उन्हीं विभूतियों में हैं। इन्होंने सुदूरदक्षिण-पथ से उत्तर-हिमालय के उत्तुंग शिखरों (बद्रीनाथ-माणागांव) तक जैन-धारा बहाने के लिए मंगल-विहार किया। भावी पीढ़ियाँ ऐसे मुनिराज की गाथाएँ युग-युगों तक गाएंगी। मुनिश्री राजनीतिज्ञ तो हैं, राजनैतिक नहीं । वे राजनीति और राजनैतिकों के मंच से कोसों दूर रहते हैं। मुझे याद है, दिल्ली में गोरक्षा-आन्दोलन के प्रसंग में मुनिश्री ने अन्य संप्रदायी सन्त को स्पष्ट कहा था-'साधु-सन्त को आन्दोलनों से क्या प्रयोजन ?' इसी प्रकार मुनिश्री के उज्जैन-प्रवास में उन्हें केन्द्रीय सरकार का पत्र मिला, तो मुनिश्री ने अपने उद्गार निम्नभावों में स्पष्ट किए-दिगम्बर साधुओं को समिति-सदस्यता से क्या प्रयोजन ? वे तो ग्राम-ग्राम घूमकर तीर्थंकरों के सन्देश पहुँचाते ही रहे हैं, जो धर्म-सेवा होती रहेगी, स्वयं करते रहेंगे और करते भी हैं। मुनिश्री किसी का लिहाज किए बिना ही, न्याय-नीति और धर्मसम्मत बात कह देते हैं । ऐसा सर्वसाधारण के लिए करना बड़ा कठिन है, उसे आगा-पीछा सोचना पड़ सकता है। मुझे स्मरण है-जब मुनिश्री ने दिल्ली से इन्दौर के लिए विहार किया, तब २५०० वीं निर्वाण-तिथि मनाने की चर्चा बहुचर्चित बन रही थी। लोग निर्वाण-तिथि समिति के अध्यक्ष के नामांकन के विषय में चर्चा उठा चुके थे । ऐसी चर्चाओं में राजनैतिक, धनी, विद्वान प्रायः सभी प्रकार के लोग होते थे । जब मुनिश्री का ध्यान उधर गया तब उन्होंने भोगल-दिल्ली ( शेष पृष्ठ १२१ पर ) मुनिश्री विद्यानन्द-विशेषांक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520601
Book TitleTirthankar 1974 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1974
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size5 MB
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