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________________ बड़े दीवानजी के मन्दिर में दोनों की भेंट रखी गयी। वह दो सन्तों के मिलन-जैसा था । तीक्ष्ण-बुद्धि पंडितजी को मुनिश्री को समझने में देर नहीं लगी और उन्हें ऐसा लगा जैसे जीवन में प्रथम बार उन्हें अपने विचारों के अनुकूल युवक सन्त मिला हो। उस ऐतिहासिक भेंट के पश्चात् मुनिश्री पंडितजी की ओर आकृष्ट होते गये। मुनिश्री एवं पंडितजी के भेंट के समाचार जयपुर-समाज में विद्युत् वेग के समान फैल गये और “मुनिश्री विद्यानन्दजी पंडितजी के मुनि हैं तथा उन्हीं की विचारधारा वाले हैं ऐसा लोगों ने कहना आरम्भ कर दिया। जब सर्वप्रथम बड़े दीवानजी के विशाल प्रांगण में मनिश्री एवं पंडितजी को एक मंच पर बैठा हुआ देखा और दोनोंने समाज एवं संस्कृति के पुनरुत्थान की बातें दोहरायीं तो सारा नगर झूम उठा और एक ही दिन में मुनिश्री जयपुर जैन समाज के ही नहीं किन्तु समस्त नगर के मुनि बन गये। नगर की सर्वाधिक लोकप्रिय संस्था राजस्थान जैन समाज द्वारा उनके प्रवचन आयोजित होने लगे । पहिले उनके प्रवचन मन्दिरों में होने लगे और जब मन्दिरों का विशाल प्रांगण भी छोटा पड़ने लगा तो महावीर पार्क में उनका साप्ताहिक प्रवचन रखा जाने लगा; लेकिन जब जन-मेदिनी ही उमड़ पड़े तो मुनिश्री को पार्क तक ही कैसे सीमित रखा जा सकता था? आखिर रामलीला मैदान में उनके विशेष प्रवचन आयोजित होने लगे। एक दिन स्टेशन रोड पर एक विशाल पंडाल में मुनिश्री का प्रवचन रखा गया। विषय था : “हम दुःखी क्यों हैं ?" मंच पर मुनिश्री के अतिरिक्त राजस्थान के राज्यपाल डा. सम्पूर्णानन्दजी एवं पंडित चैनसुखदासजी विराजमान थे। भाषण प्रारम्भ हुआ। पंडितजी ने एवं राज्यपाल महोदय ने विषय का अत्यधिक सुन्दर ढंग से प्रतिपादन किया; लेकिन जब मुनिश्री का प्रवचन आरम्भ हुआ तो उन्होंने सर्वप्रथम कहा कि जिस सभा में एक ओर सम्पूर्ण आनन्द वाले सम्पूर्णानन्दजी विराजमान हैं और दूसरी ओर चैन और सुख बैठे हुए हैं तथा वे स्वयं भी विद्यानन्द-युक्त हैं तो फिर “हम दुःखी क्यों हैं" यह विषय ही क्यों रखा गया ? मुनिश्री के कहने में इतना आकर्षण था कि दो मिनट तक सारी सभा में प्रसन्नता एवं हँसी की लहर दौड़ती रही। स्वयं राज्यपाल भी मुनिश्री की प्रवचन-शैली से इतने आकृष्ट हुए कि फिर तो वे उनकी सभाओं में स्वयमेव आने लगे और उन्होंने अपने पद एवं गौरव तथा सुरक्षा नियमों की भी चिन्ता नहीं की। जयपुर नगर ने मुनिश्री के जीवन-निर्माण की जो भूमिका निभायी वह सदैव उल्लेखनीय रहेगी। उनकी कीर्ति, प्रशंसा एवं प्रसिद्धि बढ़ने लगी। और एक महीने में ही वह वटवृक्ष के समान विशाल हो गयी। उनके प्रवचन नगर के विभिन्न मोहल्लों के अतिरिक्त बापू नगर, आदर्श नगर, अशोक नगर, स्टेशन रोड, मोहनवाड़ी आदि उपनगरों में रखे गये और नगर के अधिकांश नागरिकों ने उन्हें श्रद्धापूर्वक सुना। राज्यपाल, मुख्यमंत्री, मंत्रिगण, विधान-सभाध्यक्ष, राज्य के उच्चाधिकारी, विश्वविद्यालय के प्राध्यापक, विद्वान् , व्यापारी एवं विद्यार्थि-वर्ग सभी ने मुनिश्री के प्रवचनों १०२ तीर्थंकर | अप्रैल १९७४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520601
Book TitleTirthankar 1974 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1974
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size5 MB
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