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अनुसन्धान-७५(१)
न जोईए; अने आ बन्ने - सत्य तथा तथ्य - अमारी पासे ज छे, अमने ज समजाय - बीजाने नहि, ए, मिथ्याभिमान पण छूटी जवू जोईए.
_ 'संशोधन' विषयक आ चिन्तनकणिकाओनां विश्लेषणोनी साथे साथे प्रसङ्गोचित चर्चा दरम्यान प्रवर्तमान समयमां थई रहेलां पीएच.डी. डिग्री हेतुनां निम्न स्तरनां संशोधनो, हस्तप्रतो आधारित कृतिसम्पादनो तथा प्रतिभाशाळी विद्वानो द्वारा गत शताब्दीमां करवामां आवेलां गौरवशील सम्पादनो के जे हालमा प्रायः अप्राप्य छे ते ग्रन्थोना पुनःसंशोधित / संवर्धित संस्करणना नामे प्रवर्ती रहेल नाम रळी लेवानी मनोवृत्ति, समृद्ध ग्रन्थालयना सङ्चालकनुं असंवेदनशील अने असहकारी वलण अने रुग्ण मानसिकता वगेरे प्रति अङ्गलिनिर्देश करीने आ बधांए कयो कल्याणपथ अपनाववो जोईए तेनो दिशानिर्देश पण कर्यो छे. ज्ञानना प्रचार-प्रसारमा ग्रन्थालयनी महत्त्वपूर्ण भूमिका विशे पोताना गुरुदेव विजयनेमिसूरिना सुचिन्तनीय विचारो उद्धृत कर्या बाद आचार्यश्रीए नोंघेल शब्दो : 'आपणे ज्ञानना रखेवाळ बनीए. संवर्धक बनीए, वारसदार पण बनीए; पण ज्ञानप्रसारमा अवरोध ऊभो करे तेवा चोकीदार न बनीए. विधाप्रसारमा अवरोध ऊभो थाय तेम वर्तवू ते तो एक प्रकारनो प्रज्ञापराध छे' - सौ ग्रन्थालय-व्यवसायिको माटे सुचिन्तनीय बनी रहे छे. एक विद्याप्रेमी आचार्य तरीके 'जैनसाहित्यसंशोधक', 'जैनसत्यप्रकाश', 'पुरातत्त्व' वगेरे जेवां सामयिकोमांथी पसंदगीना लेखो पसंद करी तेना सम्पुट तैयार करवा, व्यवहारिक दृष्टिए उपयोगी एवा 'जैन पारिभाषिक कोश'नुं सम्पादन हाथ धरवू वगेरे सूचनो करी तेनी उपयोगिता पण समजावे छे. क्वचित् परम्परागत मान्यताओथी बद्ध अने संशोधनोथी प्राप्त सत्यो प्रति उदासीन वलण धरावता जैन समाजने पण निर्भीकपणे जणावे छे के 'रूढ, पछी ते पारम्परिक शोध होय अने तद्दन विकृत पण होय - तेवी मान्यताओने सिद्धान्तलेखे तेमज इतिहासलेखे स्वीकारीने चालवू ए वर्तमान जैन संघ । समाजनी सहज प्रवृत्ति छे. रूढ मान्यतामां कशुं ज परिवर्तन करी शकाय नहि, तेम करवू ए मोटो जघन्य अपराध छे, एवी दृढ धारणा आ प्रवृत्तिना मूळमां छे' (४७). आ उपरांत एक जागरूक आचार्य अने समाजना संत्री तरीकेनी छाप, संभाजी ब्रिगेड द्वारा पुनाना भाण्डारकार प्राच्यविद्या