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अनुसन्धान- ७५ (१ )
यहाँ ऐसा एक अन्य उदाहरण भी जोड सकते हैं : तत्त्वार्थ- कारिका की प्रशस्ति देखें तो वाचक उमास्वाति की वहाँ वंशावली है, और वे तो 'वाचकवंश' के हैं, उनके साथ, उनकी परम्परा के सभी के साथ 'वाचक' शब्द ही जुडेगा, जुड सकता है। मगर उक्त प्रशस्ति में 'घोषनन्दी' के साथ 'क्षमण' पद भी जोड दिया है । अगर ये दोनों पद समानार्थक न होते तो वहाँ ऐसा क्यों करते ? (क्षमण का तात्पर्य क्षमाश्रमण से होगा, यह स्वयंस्पष्ट है ।) सारांश यह कि 'संघदासगणि' के साथ दो अलग पदवाचक शब्द जुडने से व्यक्ति भिन्न नहि होता ।
लेकिन श्रीमेहता ने संघदासगणि के पूर्ववर्तित्व की समस्या को सुलझाने की कोई कोशीश नहीं की है, और उलझन को उलझन ही रहने दी है । बहुधा भाष्यविषयक बातों में श्रीमेहता ने श्रीपुण्यविजयजी के तर्कों एवं विधानों का ही अनुवाद किया है। फर्क इतना है कि तीनों भाष्यों के एककर्तृक होने की बात उन्होंने नहि कही है १३ ।
पं. दलसुख मालवणिया ने अपनी निशीथ - चूर्णि की प्रस्तावना में इस विषय पर विस्तार से चर्चा की है, व कुछ स्वतन्त्र निष्कर्ष भी दिये हैं । उनके कथनानुसार -
१.
२.
१) और 'कप्प
कल्प और व्यवहार - दोनों के भाष्य के कर्ता एक हैं । इसका स्पष्ट प्रमाण 'कप्प - व्ववहाराणं वक्खाणविहिं पवक्खामि' (कल्पभाष्य व्ववहाराणं भासं ' ( व्यवहारभाष्य १०/१४१) इन पाठों से मिलता है ४ । निशीथभाष्य की अधिकांश गाथाएँ कल्पभाष्य व व्यवहारभाष्य से ली गई हैं । बहुत अल्प अंश नई गाथाओं का है । अतः उन दोनों के जो कर्ता हो वही निशीथभाष्य के भी कर्ता हो, ऐसी संभावना उनके कथन से फलित होती है५ ।
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४.
कल्पभाष्य
३. पहले कल्प-व्यवहार के भाष्य की रचना हुई है, पश्चात् निशीथभाष्य की १६ । गा. ३२८९ में आते 'सिद्धसेणो' पद का श्लेष पकडकर श्री पुण्यविजयजी ने कल्पभाष्य के कर्ता 'सिद्धसेन' होने का और 'सिद्धसेन' 'संघदास' का नामान्तर होने की संभावना का जो निर्देश दिया है, उसका मालवणिया इन्कार करते हैं "। चूंकि नामनिर्देश का ऐसा प्रकार यदि ग्रन्थ