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सप्टेम्बर - २०१८
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कल्पचूर्णि का सम्पादन हमारा प्रयत्न, कुछ समय से, चूर्णिग्रन्थ के सम्पादन का एवं प्रकाशन का चल रहा है। परन्तु जैसे जैसे इस कार्य में आगे बढ़ते हैं वैसे वैसे यह कार्य कितना गम्भीर और दुरूह है उसकी प्रतीति होती जा रही है।
यद्यपि हमारे द्वारा बृहत्कल्पचूर्णि का यह प्रथम पीठिकात्मक खण्ड पहले सम्पादित व प्रकाशित हो चुका है, परन्तु तदनन्तर बृहद्भाष्य का कार्य जब प्रारम्भ किया, तब उसके परिप्रेक्ष्य में चूणि एवं वृत्ति का पुनः अवलोकन करना हुआ । और तब लगा कि इन तीनों को साथ में रखकर ही पुनः सम्पादन एवं संशोधन किया जाना चाहिये । और हमने पुनः आरम्भ कर दिया, मानों पहले हमने कार्य किया ही नहीं है ! । इस सुदीर्घ पुनः परिश्रम का परिणाम है यह प्रथम खण्ड।
पूर्व संस्करण के बारे में हमारा खयाल था कि जैसे अन्य संस्कृत आदि ग्रन्थों का कार्य करने में पहले प्रतिलिपि की जाय, और तदनुसार एक शुद्ध लगनेवाली वाचना तैयार कर देना होता है ऐसा इस चूर्णिग्रन्थ में भी करेंगे तो ग्रन्थ तैयार हो जायेगा । हमने जो इस चूर्णि का पीठिकात्मक प्रथम-खण्ड प्रकाशित किया है वह इसी खयाल में किया गया कार्य है, यह स्वीकारना चाहिए । बढते समय, वांचन व अनुभव के साथ स्पष्ट हुआ कि वह कार्य योग्य एवं यथार्थ, जैसा होना चाहिए वैसा, नहीं हुआ। किसी को दोष देने से हमारी जिम्मेदारी कम नहि होती है। अतः यहाँ हम निवेदन करेंगे कि इस ग्रन्थ के उक्त प्रकाशन को अब अनुपयुक्त समझा जाय । उसके आधार पर कोई अपना शोधकार्य एवं स्वाध्यायकार्य न करे । अस्तु ।
नये सम्पादन की विशेषता इस नये संस्करण में हमें कोई नई या दूसरी प्रति प्राप्त हुई है ऐसा नहीं। जो प्रतियाँ पहले थी, उन्हीं का आधार इस संस्करण में भी लिया गया है। हम इस चूणिग्रन्थ को, कल्पवृत्ति एवं कल्पबृहद्भाष्य - दोनों के पीठिका-खण्ड के साथ रखकर बार बार पढते रहे। तीनों के पाठों को अर्थसंगति की दृष्टि से सतत देखते रहे और वाचना का शुद्धीकरण करते गये । फलस्वरूप -