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अनुसन्धान-६९
मुनि - श्री मिकुंजर विरचित गजसिंहकुमार - चोपाई - उत्तरार्ध
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सं. किरीट शाह
[ मुनि श्रीनेमिकुंजरजी द्वारा सं. १५५६मां रचित, गजसिंह नामना' राजकुमारनुं चमत्कारात्मक कथानक गूंथता प्रस्तुत काव्यनुं, रतलाम ज्ञानभण्डारगत सं. १७०८मां लखायेली अक हस्तप्रतना आधारे श्रीकिरीटभाईओ लिप्यन्तरण कर्तुं छे. आ काव्यना प्रथम बे खण्ड अनुसन्धान - ६७मां प्रकाशित थया छे. तेना अन्तिम बे खण्ड (लगभग २१४ कडी) अत्रे प्रकाशित थई रह्या छे. प्रतमां अशुद्धिओनुं बाहुल्य अ अस्पष्ट मरोड तेमज काव्यगत केटलाक अजाण्या शब्दप्रयोग अने उच्चारणोने लीधे सम्पूर्णत: शुद्ध वाचना तैयार थई शकी नथी. तेम छतां तेमणे मोकलेली हस्तप्रतनी छायाप्रतिना आधारे यथाशक्य शुद्धीकरणनो प्रयत्न कर्यो छे. आ क्षेत्रमां नवी व्यक्तिओ उत्साहभेर जोडाती रहे तेवो उद्देश आ कृतिना प्रकाशनमां प्रधानपणे रह्यो छे. सं०]
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हिवइ ते परणी विद्याधरी, मयणवती सयण आगली; देखी वर-कन्यानों रूप मन हरखे विद्याधर भूप... १ सीलें सुख संपति होइ पूर, सीले दुरगति नासइ दूर; सीलतणों महिमा अ होय, गजसिंघ कुमरतणी परि जोय ... सीलें सुर नर सानिध करइ, सीलें सुरगति नर संचरइ; सील - प्रभावई विघन सव टलई, राखस - भूत-प्रेत नवि छलई... ३ कुमर प्रति विद्याधर कहई, सुख भोगवि तूं अम घरि रहइ; राज धन्यनी नही कांई मणा, मांगी लिऊ जे होसि आपणा... ४ वलतु कुमर इणि परि कहई, पूरव विरह मुझ तन दह; पहिली नारि महं परिणी च्यारि, मूकी सूती वनह मझारि... ५ विद्याधरी आण्यो अम हरी, पछइ न जाणुं पूरव चरी; सूध जोइ आव्युं जेतलई, तुम्हें बेंटी राखो तेतलइ... ६ बीजी वात सघली सोहिली, स्त्रीना पग- बंधण दोहिली; तिण कारणि हूं तुम्हनई कहूं, सूंस लीधा विण हूं किम रहूं... ७