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________________ अनुसन्धान-६९ प्रभु कहइ बंध छइ जूजूउं, कर्मप्रकृति बहु भेद । नारि वली नरपणूं लहइ, ब(चि?)हु गति पलटि वेद ॥३३॥ भावि० ॥ इम बूझवि जिनि दीखीउ पंच सयां परिवारि ।। तब मंडित पणि आवीउ, "बंध न मोख्य" विचार ॥३४॥ भावि० ॥ प्रभु कहइ हेतु-सत्तावने देहिं बाधि रे बंध । - .. न्यानादिक धरी छोडवि, मुगति कर्म नही बंध ॥३५॥ भा० ॥ प्रतिबोधी प्रभु दीखीउ, अऊठसया स्यूं सोय । मोरीअपूत बोलावीउ, तुझ मनि "देव न कोई" ॥३६॥ भा० ॥ रवि विधु बुध ग्रहगण जोउ, समवसरणि पणि देव । सो समझावी मुनि कीउ, अऊठसयां करि सेवि ॥३७|| भा० ॥ "नारक संसय" आवीउ, तोहि अकंपित कांइ । ते तिहां परवश दुखि पड्या, नारक नावि रे जाइ ॥३८॥ भा० ॥ समझावी व्रत थापीउ, तीन सयां स्यूं सोइ । "पुण्य न पाप" संदेहे तुं, अविचलभायो जोइ ॥३९॥ भा० ॥ सुकुल सरूप धनायुषो, पुण्य हुइ नही पापि । पापि बहु दुखी देखीइ, इम तुं संशय कापि ॥४०॥ भा० ॥ तीन सया स्यूं व्रत धर्यो, मेतारय तव आइ । "नही परलोक "तुं संसई, जाति मरण किम थाय ॥४१॥ भा० ॥ इम कही सो पणिं बूझव्यो, तीन सयां परिवार । विबुध प्रभास पधारीआ, "नवि निरवाण' विचार ॥४२॥ भा० ॥ मोष्य करमखय जाणिवो, इम छइ वेदनि वाकि । तु तुझ मनि संदेह को, मुगति छती चित ताकि ॥४३॥ भा० ॥ प्रभु इम कही सो बूझवी, दीख्यो तिशत समेत । इम एकादश गणधरा, त्रिपदी लिं श्रुतहेतु ॥४४॥ भा० ॥ अंग उपांग पूरव रची, ऊभा प्रभुपदपंति । सुरभि चूरण हरि-थालथी, प्रभु गणधर शिरि दंति ॥४५॥ भा० ॥ गणिपद तीरथ अणूंजतां, आणी चंदनबाल । दीखी बहु नृपकुमरिस्यूं, वरिसइ कुसुम सुरसाल ॥४६|| भा० ॥
SR No.520570
Book TitleAnusandhan 2016 05 SrNo 69
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2016
Total Pages198
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size12 MB
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