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मार्च - २०१६
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आ फळरूप जे ज्ञान छे ते ज्ञान, 'प्रमाण छे के अप्रमाण' तेवी चिन्तानो विषय ज नथी. जेम के अङ्कररूप फळ उत्पन्न करवू ते ज बीजनी बीजरूपता छे. अङ्करने जोइने बीजनी बीजरूपतानो निश्चय थई शके छे. पण त्यां अङ्करमां बीजरूपता छे के नहि तेवो प्रश्न कोई उठावतुं नथी. तेवी ज रीते संवादज्ञानथी प्रवर्तकज्ञानना प्रामाण्यनो निश्चय थई शके छे. अने त्यां संवादज्ञानविषयक प्रामाण्यनी आशङ्का पण जागती नथी. ट्रॅकमां संवादज्ञान पोते ज संवादरूप छे, अने स्वरूपअंशमां तो सर्व ज्ञान प्रमाणात्मक ज होय छे अने मे प्रामाण्य स्वतःसिद्ध ज होय छे. बाह्यविषयनी अपेक्षाओ ज ज्ञानमां प्रामाण्य-अप्रामाण्य, स्वतस्त्व-परतस्त्वनी चिन्ता करवी शेष रहे छे. अने अथी संवादज्ञानना प्रामाण्यनो प्रश्न उठावीने, अनवस्था दोष आपीने, प्रवर्तकज्ञानना प्रामाण्यने स्वतःसिद्ध साबित करवू वाजबी नथी.
प्रश्न थई शके के जो संवादथी ज पूर्वज्ञान- प्रामाण्य निश्चित थई शकतुं होय, तो कानथी सांभळीने थती बुद्धि अप्रमाण थई जशे. केम के शब्द पोते स्थिर रहेवावाळी वस्तु नथी. तेथी अक वखत जे शब्द संभळायो ते फरीथी नथी ज संभळाववानो. तो आमां संवाद उत्पन्न थवानी शक्यता ज क्यां रहे छे ? परतःप्रामाण्यवादीओ आनो जवाब ओवो आपे छे के, आपणे दूरथी चांदी जोई तो त्यां जइने हाथमां लइने जोइने नक्की करवू पडे के खरेखर चांदी छे के नहि ? पण श्रोत्रबुद्धिमां तो आवं नथी. ओ तो स्वतःप्रमाण छे. कानथी शब्द सांभळ्या पछी, मने संभळायो ते खरेखर शब्द ज हतो के नहि अवो प्रश्न ज नथी थतो. हा, अमां ध्वनिविशेषविषयक 'आ वीणानो शब्द हतो अq ज्ञान थयुं ते साचुं हशे के नहीं' अवो प्रमाणसंशय थई शके छे, अने वीणा वगेरे जोईने तेवा प्रकारना संवादक ज्ञानथी प्रामाण्यनो निश्चय करी शकाय छे. पण ध्वनिसामान्य ज्ञान, चित्रमा आलिखित रूप, ज्ञान, गन्ध-रस-स्पर्श व.नी अनुभूतिओ - 'आ बधां ज्ञानो अर्थक्रियाज्ञानात्मक होवाथी स्वतःसिद्ध प्रमाणभूत होय छे.
हवे, वात रहे छे प्रामाण्यना निश्चय वगर पण प्रवृत्ति केवी रीते थाय छे तेनी. ज्ञान बे दशामां थई शके छे. १. अभ्यासदशा २. अनभ्यासदशा. धारो के कोईने एकाद-बे वार अग्निने लीधे ठंडीथी रक्षण मळ्युं. तो ओना मनमां