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जून - २०१५
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अनुसन्धान-६७
सम्पादक की टिप्पणी
परिशिष्ट - ३ प्रस्तुत प्रारूप सम्बन्धी संकेतसूचि एवं कुछ ज्ञातव्य इस मैटर में दशवैकालिकसूत्र की गाथाओं के क्रमांक स्वाध्यायमाला के अनुसार लगाये गये हैं। दशवैकालिकसूत्र वृद्धविवरण, हारिभद्रीय टीका, सुमतिसूरिकृत टीका, तिलकाचार्य टीका आदि के उद्धरणों में उपर्युक्त व्याख्याग्रन्थों की मुद्रित प्रतियों से कहीं भिन्नता हो सकती है, क्योंकि हमने कई स्थलों पर जो उद्धरण दिये हैं उनमें प्राचीन हस्तलिखित प्रति से चूणि टीका पाठ का मिलान कर योग्य पाठ को उद्धृत किया है। हारिभद्रीय वृत्ति के उद्धरण में दिए पत्रांक आगमोदय समिति से प्रकाशित वृत्ति के हैं, तथा साथ में ब्रैकेट में दिये गए क्रमांक (भाग क्रमांक / पृष्ठ क्रमांक) कमल प्रकाशन ट्रस्ट से प्रकाशित वृत्ति के हैं। आगमों के उद्धरण जहाँ भी दिये गए है, वहाँ ध्यातव्य है कि, आचारांग सूत्रकृतांग, ठाणांग, समवायांग, भगवती, ज्ञाताधर्मकथा, प्रज्ञापना, उत्तराध्ययन, नंदी और अनुयोगद्वार - इन शास्त्रों के उद्धरण 'महावीर जैन विद्यालय' से प्रकाशित आगमों से लिए गए है तथा उपर्युक्त के अलावा शेष आगमों के उद्धरण आगम-प्रकाशन समिति, ब्यावर (युवाचार्य श्रीमधुकर मुनि) से प्रकाशित आगमों से लिए गए हैं। इसके अतिरिक्त यदि अन्यत्र से लिए गए है वहाँ सूचित कर दिया गया है। आगमों के उद्धरण में सूत्र / गाथा क्रमांक के पश्चात् ब्रैकेट में पाठकों की सुविधा के लिए सूत्र / गाथा को ढूंढने हेतु संक्षिप्त संज्ञा का उल्लेख किया है। वे संक्षिप्त संज्ञाएं एवं उनका विवरण इस प्रकार है। (मजैवि.) = महावीर जैन विद्यालय से प्रकाशित आगम (मधु.) = मधुकर मुनिजी - आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर (ते.) = तेरापन्थ - जैन विश्व भारती, लाडनूं (स्वा.) = स्वाध्यायमाला
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___आचार्य श्रीसागरानन्दसूरिजी एवं आगमोदय समिति के सम्पादनों के बारे में श्रीरामलालजी ने अपने विस्तृत लेख में एक से अधिक बार अरुचिसूचक टिप्पणियां की हैं, जो हमें योग्य नहि लगती हैं। श्रीसागरानन्दसूरिजी महाराज ने अपने समय में अकेले हाथ आगमसम्पादन एवं वाचनाशुद्धि का जो महत्त्वपूर्ण कार्य किया वह अपने आप में अनूठा है। हो सकता है कि उनके पास हर एक आगम की विविध भण्डारों से प्राप्य सभी प्रतियाँ उपलब्ध न हो, परन्तु उसका मतलब ऐसा नहि हो सकता कि उन्होंने प्रतियों की परीक्षा किये बिना ही अशुद्धप्राय: एक-दो प्रतियों को सामने रखकर ही सम्पादन किया था। उन्होंने हरसम्भव विविध ग्रन्थभण्डारों की अनेक प्रतियों का अवलोकन करके ही सम्पादन किया था यह एक ऐतिहासिक तथ्य है।
वस्तुत: वे प्राचीन परिपाटी के आचार्य थे । आधुनिक शोध एवं सम्पादन की पद्धति उनके सामने नहि थी। इसलिए उन्होंने परम्परागत शैली से सम्पादनकार्य किया। लेकिन पाठ निकाल देना बढ़ा देना परिवर्तित कर देना ऐसा अनुचित कर्म उन्होंने जानबूझकर किया था ऐसी सोच भी उनकी जिनागम के प्रति भक्ति एवं निष्ठा को अन्याय करनेवाली होगी ।
उदाहरण के तौर पर श्रीसूत्रकृताङ्ग के टीकाकार भगवान शीलाङ्काचार्य ने भी लिखा है कि "इह च प्राय: सूत्रादर्शेषु नानाविधानि सूत्राणि दृश्यन्ते, न च टीकासंवादी एकोऽप्यादर्श: समुपलब्धः, अत एकमादर्शमङ्गीकृत्याऽस्माभिविवरणं क्रियते इति । (सूत्रप्रतियों में वाचनागत विविधता का कोई पार नहीं है, तिस पर चूर्णिसम्मत सूत्रपाठ वाली प्रति तो एक भी नहि मिली, इसलिए एक ही प्रत की वाचना को मान्य करके उस पर हम विवरण कर रहे हैं। " लगता है कि यदि हमारे जैसे संशोधनपरस्त विद्वान उस समय जिन्दा होते तो शायद श्रीशीलाङ्काचार्य को भी कह देते कि "एक प्रति से काम नहि चल सकता, पहले सब प्रतियों के आधार पर एक समीक्षित वाचना तैयार कीजिए, फिर उस पर विवरण लिख लीजिए !"
श्रीसागरानन्दसूरिजी महाराज के सामने भी विभिन्न प्रतियों की विविध वाचनाएं रही होगी। उनमें से उनको अपने अनुभव के अनुसार जो वाचना ठीक लगी, उसका उन्होंने ग्रहण किया । इस परिस्थिति में उन्होंने वाचना में विकृतियाँ