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जून - २०१५
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अनुसन्धान-६७
जिससे 'पूर्वापर विरोध' आता है।
चूणियों में विद्यमान खुली गाथाओं वाले पाठ को स्वीकारने पर 'द्विरुक्ति' एवं 'पूर्वापर विरोध' - ये दोनों दोष स्वत: निवृत्त हो जाते है। अत: यहाँ संग्रहणी गाथाओं की जगह खुली खुली गाथाओं वाला पाठ स्वीकारा गया है।
'जाव' पाठ के अन्यत्र आए विस्तार से उस स्थान के पाठ में कहीं - कहीं कुछ अन्तर होता है जिसे प्राचीन काल के आगमज्ञ मुनिवर समझते थे। पर कालान्तर में वह अन्तर परिज्ञात नहीं रह पाया एवं विस्तार वाले स्थान के तुल्य पाठ समझ लेने से भी पाठभेद किंवा अर्थभेद भी हो गया। (८) अध्यापनकाल में विषय को समझने हेतु सूत्रप्रति पर अन्य गाथा का लेखन :
पाठभेद का एक अन्य कारण आगमों का अध्यापन या व्याख्यान करते समय व्याख्याता द्वारा विषय को समझाने हेतु सूत्र के पन्ने पर ही किनारे किसी अन्य गाथा आदि को लिख देना है. जिसे उत्तरवर्ती लिपिकार भ्रान्तिवश मूलपाठ में सम्मिलित कर लेते हैं। ऐसा मुनि श्रीपुण्यविजयजी ने श्रीनन्दिसूत्र के सम्पादकीय (पृ. २४) में संकेतित किया है। आगमप्रभाकर मुनि श्रीपुण्यविजयजी की संशोधनपद्धति का सारसंक्षेप
श्रीदशवैकालिकसूत्र के पाठनिर्णय पर अब तक जिन विद्वज्जनों ने कार्य किया है उनमें आगमप्रभाकर मुनि श्रीपुण्यविजयजी का नाम विशेषतः उल्लेखनीय है। उन्होंने अत्यन्त धैर्य एवं परिश्रमपूर्वक अनेक आगमों के सम्पादन का कार्य किया है।
श्रीनन्दीसूत्र एवं अनुयोगद्वारसूत्र की प्रस्तावना लिखते हुए उन्होंने अपनी आगम-संशोधनपद्धति का जो उल्लेख किया है उसका संक्षिप्त सार यहाँ प्रस्तुत करना प्रासंगिक होगा। उन्होंने अपनी पद्धति को मुख्यत: छः बिन्दुओं में समाहित किया है। १. “लिखित प्रतियों का उपयोग" - भिन्न-भिन्न कुल+ की प्राचीनतम
हस्तलिखित ताडपत्रीय प्रतियों एवं कागज़ की हस्तलिखित प्रतियों से उन्होंने मूलपाठ का अक्षरश: मिलान किया एवं पाठान्तरों की नोंध
करके उन पर यथायोग्य विचारपूर्वक निर्णय किया । २. "णि, टीका, अवचूरि आदि का उपयोग" - सत्र पर लिखित चणि.
वृत्ति, टीका आदि की हस्तलिखित प्रतियां लेकर पहले उन्हें संशोधित करना एवं फिर उन व्याख्याओं में प्राप्त प्रतीकों एवं सूत्रानुरागों (व्याख्याओं) के आधार पर मूलपाठ का निर्णय करना मुनिश्री को अभीष्ट रहा है एवं उन्होंने ऐसा अनुभवपूर्ण परामर्श भी दिया है कि मुद्रित अशुद्ध चूर्णि, टीका आदि के आधार से सूत्रपाठ का निर्णय करना उचित नहीं है। किसी भी ग्रन्थ का संशोधन करने से पूर्व उसके व्याख्यासाहित्य को हस्तलिखित प्रतियों के आधार से संशोधित करके तत्पश्चात् ही मूलग्रन्थ के संशोधन में प्रवृत्ति करनी चाहिए, क्योंकि मुद्रित
चूणियों एवं टीकाओं में अनेक पाठ अशुद्ध है। ३. "आगमिक उद्धरणों का उपयोग" - अन्य आगमिक व्याख्याओं अथवा
अन्य ग्रन्थों में 'संशोध्य आगम' के सूत्रों के जो उद्धरण प्रसंगोपात्त आए
हैं, उनके आधार पर भी सूत्र में उपलब्ध पाठ पर विचार करना । ४. "अन्य आगमों में आए सूत्रपाठों से तुलना" - प्रस्तुत सूत्र की गाथाओं
इत्यादि से मिलतेजुलते पाठ या समानार्थक पाठ अन्य आगमों में प्राप्त सूत्रप्रतियों के प्रसंग में जो सूत्रप्रतियां किसी एक सूत्रप्रति के ही क्रमिक अनुसरण रूप होती हैं तथा जिनमें प्राय: समानता पाई जाती है, उन्हें एक 'कुल' की सूत्रप्रतियाँ कहा जाता है। चूर्णिकार एवं टीकाकार अपनी चूणियों एवं टीकाओं में मूलपाठ को अक्षरश: नहीं लिखते । जिस गाथा की व्याख्या प्रारम्भ की जा रही है उसके प्रारम्भ के या कदाचित् मध्यवर्ती शब्द या शब्दों को लिखकर व्याख्या करते है। उन आगमशब्दों को 'प्रतीक' कहा जाता है जो इस बात के प्रतीक होते हैं कि अमुक गाथा की व्याख्या की जा रही है यथा "धम्मो मंगलमुक्कटुं'त्ति सिलोगो" (श्रीअगस्त्यचूर्णि) । यहाँ 'धम्मो मंगलमुक्कट्ठ' प्रतीक है। ज्ञातव्य है कि गाथा के कुछेक शब्द ही प्रतीकरूप में मिल पाते हैं, गाथा के सभी शब्द नहीं । शेष शब्दों को व्याख्या के आधार पर निर्धारित किया जाता है।