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________________ जून २०१५ - असंसट्टेण हत्थेण, दव्वीए भायणेण वा । दिज्जमाणं ण इच्छिणा, पच्छाकम्मं जहिं भवे ||३५|| ११७ संसद्वेण य हत्थेण, दव्वीए भायणेण वा । दिज्जमाणं पडिच्छेज्जा, जं तत्थेसणियं भवे || ३६ || इन गाथाओं में ३३वीं तथा ३४वीं गाथाएं 'संग्रहणी गाथाएँ' है । दोनो चूर्णियों में तथा प्राचीन 'जे' प्रति में इन दो (गाथा ३३ व ३४) संग्रहणी गाथाओं के स्थान पर सतरह गाथाएँ खुली-खुली प्राप्त होती है । वे इस प्रकार हैं पुरेकम्मेण हत्थेण, दव्वीए भायणेण वा । देंतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ उदओल्लेण हत्थेण दव्वीए भायणेण वा । देतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ ससिणिद्वेण हत्थेण, दव्वीए भायणेण वा । देतियं पठियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ ससरक्खेण हत्थेण, दव्वीए भायणेण वा । देतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ मट्टियागतेण हत्थेण दव्वीए भायणेण वा । देतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पड़ तारिसं ॥ ऊसगतेण हत्थेण, दव्वीए भायणेण वा । देतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ हरितालगतेण हत्थेण, दव्वीए भायणेण वा । देतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ हिंगुलुयगतेण हत्थेण, दव्वीए भायणेण वा । देतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पड़ तारिसं ॥ मणोसिलागतेण हत्थेण, दव्वीए भायणेण ता । देतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ अंजणगतेण हत्थेण, दव्वीए भायणेण वा । देतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ ११८ लोणगतेण हत्थेण, दव्वीए भायणेण वा । देतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ गेरुयगतेण हत्थेण, दव्वीए भायणेण वा । देतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ वणियगतेण हत्थेण, दव्वीए भायणेण वा । देतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ सेडियगतेण हत्थेण, दव्वीए भायणेण वा । देतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ सोरट्टियगतेण हत्थेण दव्वीए भायणेण वा । देतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ पिट्ठगतेण हत्थेण, दव्वीए भायणेण वा । देतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ कुक्कुसगतेण हत्थेण, दव्वीए भायणेण वा । देतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ उक्कुट्ठगतेण हत्थेण, दव्वीए भायणेण वा । देतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ असंसण हत्थेण, दव्वीए भायणेण वा । दिज्जमाणं न इच्छेज्जा, पच्छाकम्मं जहिं भवे ॥ संसद्वेण हत्थेण, दव्वीए भायणेण वा । दिज्जमाणं पडिच्छेज्जा, जं तत्थेसणियं भवे ॥ अनुसन्धान-६७ मुनि श्री पुण्यविजयजी ने भी खुली गाथाओं वाले उपर्युक्त पाठ को ही स्वीकार किया है। खुली गाथाएँ होना संमत भी है क्योंकि संग्रहणी गाथाओं (३३-३४) में 'असंसट्टे' व 'संसट्टे' इन दोनों पदों के होने पर भी पुनः खुले रूप से 'असंसट्टेण' एवं 'संसट्टे' पद से युक्त गाथाएँ (३५-३६) संग्रहणी गाथाओं के पश्चात् प्रस्तुत की गई हैं जिससे 'द्विरुक्ति' का प्रसंग बनता है। इतना ही नहीं, संग्रहणी गाथा (३४) में आए 'संसट्टे' पद से संसृष्ट दर्वी, भाजन आदि से प्रदत्त आहार अकल्प्य सिद्ध होता है, जबकि अग्रिम गाथा (३६) से संसृष्ट दव, भाजन आदि से प्रदत्त आहार कल्पनीय माना गया है।
SR No.520568
Book TitleAnusandhan 2015 08 SrNo 67
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2015
Total Pages86
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size1 MB
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