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जून - २०१५
अनुसन्धान-६७
चेत्रि सुभुवणि उत्तुंगि, रंग नवला नितु किज्जई; चंदन मृगमदपूरि अगरु, रस अंगि लगिज्जई; कुसुम सेज साथरई, गीत गुण मन आनंदन; तपति बुझई तनि लाई, दासी मलयागरु चंदन... २९ तरुवर फुल्लित फलित वनि, सुरभि कुसुम घन वास; जलकण खेल खंडोखली, माधव मासि उल्हास; माधव मासि उल्हास, कुहु क्कुहु कोकिल कूजई; सुठु वसंत सुविलास, भमर मधुर ध्वनि गूजई; लालगुलाल अबीर चीर, अच्छा तनि सुन्दर; धन वसंत रितुराउ फलित, फुल्लित वनि तरुवर... ३०
नेह प्रियस्युं सही किंपि काचउ नही, वल्लहा जेम सारंग मेहा; स्वारथइ इउं कलावंत पुत्री भणई, प्रीति कईठ उरि हठवाद केहा(?)... ३६
॥ गाथा ॥ हंसा राचंति सरे, भमरा रच्चंति केतकीकुसुमे; चंदणवणे भुयंगा, सरिसा सरिसेहि रच्चंति... ३७
|| जुडिल || सुविलास प्रहेलि हियालि नवी, प्रिय गीत विनोद कला करिवी; ईकवार नयणि निहाली अम्हा, हमि रूपकला गुण लीण तुम्हां.... ३८ जब तारकी तार अनुन्न मिली, सुवचन्न रचन्न जुगत्ति मिली; सुमदन्न करई जोरि थयउ विकली, कृत कर्म उदिन्न थया भुगली... ३९
॥ दूहउ ॥ नयण बाणि वेध्यउ तिणे, आषाढभूति हतेम; भेद्यउ दूहादिक वयणि, आमकुंभ जलि जेम.... ४०
॥ झूलणा ॥ इंद नई चंदनागिंद भुल्ला सहू, भुल्ल सुरअसुर हरिहर विधाता; आद्रकुम्मार अरहन्न मुणिवर वली, नंदखेणादि भुल्ला विख्याता; पवर नेपत्थ अरु रूप देख्यांत छई, मयणि नर बापुडा सुवसि कीधा, कामयण करणनई विषयरस वाहीया, नारिलोयणि वयणि कुण न वीधा... ४
जेठि तपई सिरि सूरकर, कोमल छइ तुम्ह देह; भिक्षा घरि घरि मांगिवी, पाओ अणुहाणेह... ३१ गयणि घटा घन ऊनयउ, धुरि आसाढह मास; प्रिय प्रति भोज पठाईयई, कामिणि ल्यई तउ सास. ३२
|| गाथा ॥
गिम्हे चीर दुगंधो, सिसिरे कालंमि सीयसहणं च; वरिसालइ पंकगाहण, पिय! संजमि किं भवे सुक्खं... ३३ अन्हाणमदंतवणं, मायाइविवज्जणं अधोवणयं; असिधारमग्गचलणं, जायणवित्तीउ निच्चंपि... ३४
__|| झूलणा ॥ सुद्ध संजम महापंचवत पालिवा, लण विण शिलतणउ स्वाद लेवउ वली जरवाणि अनिउन्ह आछणजलं, सूझतउ दोहिलउ ते मिलेवउ... सरस रस गृद्धि नहु किंपि करिवी, किमई बाहु उवहाण धरिणी सुअवउ; भोग सुविलास विण जेह संजम लियई, तेह नरकुं कहउ कुंण हेवउ... ३५ कला चउसठि भरी अम्हे गणसुन्दरी, दिवसनिसि तुम्ह गुणि चित्त लायउ; मम करउ प्रांण तुम्हि जाणवरि स्युं हिवई, सरिस संजोग विधिई हु निपायउ...
विषय तणई रसि वाहीउ, सुकुल अकुल न मुणेई; लज्जा छंडई आपणी, संजम व्रत न गिणेइ... ४२ पुच्छनेहि मंदिरि रहण, देई बोल मुणीस; वंदण गुरु आदेसकुं, आवई धुरि सुजगीस... ४३
॥ वेलि ॥ सुजगीसई पंथि तुरंत चलंतउ, चंचल चित्त अपार, जब अणि परई गरि आवत दीठउ, जाण्यउ कोई विकार; गुरु साम्हउ आवि ईसी परि बोलई, आवउ दुःष्करकार, तुम्हि जाण प्रवीण असूर कीयउ, काई विहरण केरी वार... ४४