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________________ - अनुसन्धान-६६ / संवत सोलछप्पन्ना(१६५६) वरषे, पोष सुदि त्रिज जाणि, सूरति नयरिं विनती कीधी, चित धरो प्रेम ज आणि. 23 जेसंगजी..... जिहां लगइ रवि-ससी गगनई विराजइ, सायर न लोपइ लीह', तिहां लगि तुं चिरंजीवे गुरुजी, प्रणमुं हूं निसदीह. 24 जेसंगजी..... कल्याणकरण श्रीकल्याणविजय, गुरु-सेवक प्रणमइ पाय, . कहइ दृष्ट लेखि गुरुजी पधारइ, सयल संघ सुख थाय. 25 जेसंगजी..... // इति श्रीश्रीश्रीश्रीश्रीविजयसेनसूरीस्व(श्व)राणां लेखः समाप्तः // ___गणि गुणविजयलखितम् / श्राविका जयंतबाई पठनार्थम् // शब्दकोश 1. परतकि = प्रत्यक्ष 2. पटोलइ = पटोळामां 3. जीहां = जिह्वा . 4. लीह = मर्यादा __एक नोंध 'जैन परम्परानो इतिहास-४' (पृष्ठ 226 तथा 290) प्रमाणे, सं. १६५५मां विजयसेनसूरिनुं चोमासु अमदावादमां थयु. ते ऊतर्ये १६५६मां मागशरमां विद्याविजयजीने पं. पद आप्यु. ते पछी लाडोल. जई 3 मासनी सूरिमन्त्रनी आराधना द्वारा देवने प्रत्यक्ष कर्या अने पछी विद्याविजयजीने उपाध्यायपद आप्युं. ते पछी वैशाख शुद ४थे खम्भातमां तेमने सूरिपद आपी 'विजयदेवसूरि'नामे जयविजयजीना पत्रमा 'रहइ गुरु चउमासि' एम निर्देश मळे छे, आनो अर्थ तेओ | लाडोलमा 4 महिना रोकाया हता - एवो थई शके; चातुर्मास कर्यु एम न कही शकाय, एम लागे छे. बीजुं, आचार्यपद वैशाखमां थयुं छे, ने अत्रे प्रगट थता बेय पत्रो पोष अने उल्लेख पण जोवा मळे छे. तो पदवी अने नामाभिधान थया पूर्वेना पत्रोमां आवो उल्लेख केवी रीते थयो हशे ? एम अटकळ थाय के पत्रो सं. १६५६ना नहि, पण १६५७ना होवा जोईए; अथवा तो काई लेखन-क्षति होवी जोईए. ए सिवाय कोई खुलासो सूझतो नथी. . - शी.
SR No.520567
Book TitleAnusandhan 2015 03 SrNo 66
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2015
Total Pages182
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size12 MB
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