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'अमे जे संशोधन करीए, के प्रतिपादन, ते उपर कोई सुधारो के संशोधन के नुक्तेचीनी पण करी न शके; करवी होय तो तेणे ते पहेलां अमने बताडवीवंचाववी जोईए; अमे मंजूर राखीए तो ज ते जाहेर करवी जोईए' - आवी, विचित्र गणी शकाय तेवी, मान्यता के आग्रह धरावता लोको, हमणांहमणां, सुलभ बनी रह्या छे. बहिदृष्टिए खूब विकसित जणाता आवा मित्रो पण, पोतानी अहंमन्यताना शिकार बनीने, अन्तर्दृष्टिए सीमित केम रही जतां हशे ? ए हजी समजमां आवतुं नथी. जोके ए बधुं समजवानी जरूर पण नथी लागती. ..
__ आवा मित्रो, वैश्विक, भारतीय अने गुजराती साहित्यजगत्ना प्रवर्तमान प्रवाहो तथा परिस्थितिथी, महदंशे अनभिज्ञ होय छे. तेमनी आ अनभिज्ञतानुं कारण, आवा साहित्य साथे तेमनो सम्पर्क नथी होतो ए छे; अने आ असम्पर्कनुं कारण, तेमनी संकुचित साम्प्रदायिक मान्यताओ होय छे.
साम्प्रत साहित्यिक प्रवाहोनी वात करीए तो, आपणी-गुजराती-भाषामां 'प्रत्यक्ष', 'परब', 'शब्दसृष्टि' जेवां विविध साहित्यिक सामयिको प्रकाशित थाय छे. तेमां प्रख्यात, लोकप्रिय, विद्वान लेखको/साहित्यकारोना लेखो छपाय छे. उपरान्त, अनेक साहित्यिक प्रकारोनां पुस्तको पण प्रगट थाय छे. तेमांथी विविध लेखो के पुस्तको विषे समीक्षात्मक लेखो तथा चर्चापत्रो पण, आ सामयिकोमां छपातां रहे छे. ए समीक्षा के अवलोकनमां, समीक्ष्य पुस्तक के लेखमां जणाती विशेषताओने तो उजागर करवामां आवे ज, पण साथे तेमां रहेल विगतदोषो, प्रतिपादन-दोषो, निरूपणशैथिल्य, भाषादोषो, मुद्रणदोषो वगेरेनुं पण विस्तारथी, सदृष्टान्त निरूपण थतुं होय छे. एमां एवी भूलो नीकळे अने ते बदल ते लेखकने एवी कडक आलोचनाना विषय बनवू पडे, के सामान्य वाचकने एम थाय के 'आवं करातुं हशे ? अने हवे पेला लेखक आ समीक्षक साथे. बाखडी ज पडवाना!'
पण ना, आq कांई थतुं नथी. केमके आ प्रवृत्तिमां कोईने व्यक्तिगत द्वेष, दुर्भाव के असूया, मोटा भागे, होतां नथी. लेखक आ समीक्षाने खेलदिलीथी स्वीकारे; ज्यां पोते सहमत न होय त्यां प्रतिवाद पण करे; ते प्रतिवाद पण ते ज सामयिकमां छपाय; अने छतां बन्ने वच्चे कटुता भाग्ये ज सर्जाय; बल्के बन्नेनी मित्रताने कोई घोबो न पडे.