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________________ निवेदन संशोधन एक विज्ञान छे; ज्ञानना क्षेत्रनी वैज्ञानिक पद्धति छे. विज्ञान एटले नित्य-नूतन उन्मेष प्रगटावनारुं ज्ञान. ए कदी जूनुं न थाय. ए क्यारेय पूरुं पण, कदाच, न थाय. अने आमां ज एनी रोचकता छे, रोमांचकता पण. सांचो विज्ञानी संशोधनपरस्त होय छे, तेम साचो संशोधक विज्ञानपरस्त होय छे. तेना चित्तमां सतत प्रवर्त्या करतुं ज्ञान - कुतूहल अथवा जिज्ञासा, तेने सतत कांईक नवं शोधवा प्रेर्या करे छे; एनं संशोधन जूनामांथी नवं खोळतुं रहे छे, अने जूनाने नवी - शोधक नजरथी जोतां शीखवतुं रहे छे. मजा ए ज छे के आम करवामां एने-एनी शोधक दृष्टिने व्यक्तिगत राग के द्वेषनां आवरणो नडतां नथी. एनी दृष्टि तत्त्व के पदार्थ उपर होय छे, तेनुं प्रतिपादन के प्रस्तुति करनार व्यक्ति उपर नहि. एने सत्यनी खोज होय छे, अन्यने जूठा ठराववानी गणतरी नहि. प्रतिपादक व्यक्ति क्यारेक साची ठरे, तो घणीवार तेनुं प्रतिपादन जूटुं पण ठरे एवं बने. परन्तु संशोधक वैयक्तिक राग-द्वेष थकी मुक्त होवाने कारणे, तेने तत्त्व पामवानो आनन्द ज अनुभवाय छे; कोईने खोटा ठराववानो नहि. बछे एवं के कोई व्यक्तिनुं विधान, प्रतिपादन के प्रस्तुति, नवा चिन्तन के संशोधनने कारणे, गलत ठरी जाय, त्यारे ते व्यक्तिने माठु लागी जतुं होय छे. एम मानी ले छे के आमणे मने ऊतारी पाडवा माटे अने खोटो देखाडवा माटे आम कर्तुं छे. आम बनवानुं मुख्य कारण, तेवी व्यक्तिमां प्रवर्तती राग-द्वेषनी अने मारा- तारानी ग्रन्थिओ होय छे, एम कही शकाय आवी व्यक्तिनो आशय, कशुंक नवं प्रतिपादन/संशोधन करवाने बदले, पोतानी आवडत अने अहमियतना प्रदर्शननो वधारे होय छे: स्वाभाविक रीते ज, आवा लोकोमां, 'मने आवडे एवं कोईने आवडे नहि' एवी, अने 'मारी भूल कोई ज काढी शके नहि; काढे तो ते मारी वात समज्यो ज नथी एम मानवुं पडे' आवी ममत - ममत्वग्रन्थि प्रबळ होय एवं जोवा मळे छे. आवा लोकोमां पाण्डित्य अवश्य हशे, पण शोधकोचित ताटस्थ्य नथी होतुं.
SR No.520567
Book TitleAnusandhan 2015 03 SrNo 66
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2015
Total Pages182
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size12 MB
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